दो शब्द
दो शब्द
दो शब्द लिखने के चक्कर में क्या-क्या लिखा जाता है खुद को भी समझ में नहीं आता. जब तक लिखने का फ्लो बनता है. तब तक सोच गायब हो जाती है और जब सोच होती है तब शब्द नहीं मिलते. और जब लिखने की पिनक में शब्दों की खुराक मिलती है तब जो लिखा जाता है उसके बारे में तो पाठक ही जाने लेकिन खुद को जो संतुष्टि मिलती है, वह अनमोल होती है. मेरे घमंड की इंतेहा देखिए लिखने वालों की लाइन में यह सोच कर सबसे पीछे खड़ा हूं कि काश कभी लाइन का रुख पलटने में कामयाब हो गया तो सबसे आगे मैं ही रहूंगा.
बस इसी धुन में लिखता चला जा रहा हूं कि कभी तो वह सुबह आएगी जब मेरे नाम का सिक्का चमकेगा. मेरे नाम का सिक्का खोटा होगा या सुनहरा यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा लेकिन फिलहाल मैं अपने रास्ते से नहीं भटकने वाला. जानता हूं कि शुरुआती दौर में कभी किसी को कोई भाव नहीं मिलता है तब मुझे कौन पूछने वाला है. उगते सूरज को सलाम करने वाली दुनिया की क्या बात करूं. यह दुनिया वाले ही है जो ना जीने देते है और ना मरने देते हैं. लेकिन यही वह दुनिया है जो सफलता मिलते ही आपके कदमों में अपनी जान न्योछावर करती है. बस आप में कुछ कर गुजरने की ख्वाहिश पर लगाम नहीं लगनी चाहिए. यूं भी दुनिया के पास करने के लिए आपके सिवाय और भी बहुत कुछ है. दो शब्दों के फेर में इतनी बात कह गया. दो शब्दों के साथ अपनी बात खत्म करता हूं.