डूंगरपुर के रहस्य -४(माव जी महाराज के जन्म का रहस्य)
डूंगरपुर के रहस्य -४(माव जी महाराज के जन्म का रहस्य)
डूंगरपुर शुरू से कुछ खास रहा है, बात आज़ादी की जंग की हो या आज के राजस्थान की या राजस्थान के सबसे सुन्दर पर्यटक स्थलों में से एक होने की। डूंगरपुर के ब्लाक सीमलवाडा से दक्षिण में 17 किमी दूर है भानगढ़। डूंगरपुर आदिवासी संस्कृति के लिए जाना जाता है। भानगढ़ आदिवासी संस्कृति जब केंद्र हुआ करता था, यहाँ के भील अद्भुत प्रतिभा वाले होते थे ,कोसो दूर से निशाना लगाना हो या माही नदी के तल से पेम्बा उठाकर लाना हो , पेम्बा –सोने की मोहर होती थी ,जिसे राज परिवार के लोग मन्नत मांगने के समय माही के कुण्ड में फेंक देते थे ,अगर पेम्बा किसी को मिल गई या पानी में किसी को दिखाई दे गई टी मन्नत पूरी नहीं होती थी पर अगर कुण्ड ने पेम्बा को अपना लिया तो तीन दिन में मन्नत पूरी हो जाती थी। इसके बाद भील इस भयंकर कुण्ड में जान की बाजी लगाकर पेम्बा को निकाल लाते और इसे गलाकर फिर इसको उपयोग में लाते थे।
भानगढ़ डूंगरपुर की दक्षिणी सीमा पर है, यह बात जबकि है जब अंग्रेज भारत की रियासतों को अपने हुकूमत में मिलाने के लिए चालें चल रहे थे। लार्ड मिपन को डूंगरपुर को ब्रितानी हुकूमत में मिलाने का काम सौंपा गया। भील गोर्रिल्ला युद्ध के सिद्धस्त थे , पता ही नहीं चलता हटा की कब कहाँ से आ जाते , अंग्रेजो को घेरकर मार डालते , जितनी भी सेना की टुकड़ी आयी ,एक सैनिक भी जिन्दा नहीं लौटा था आज तक , ना ही किसी की लाश पाई गयी। धरती निगल जाती थी या आसमान –पता ही नहीं चलता था। लार्ड मिपन डूंगरपुर पर कब्ज़ा करने से पहले इसी रहस्य को सुलझाना चाहते थे। उन्होंने अपने जासूसों को भेजा जो भील समुदाय से ही थे , जासूस भी केवल ये पता लगा सके की युद्ध स्थल की मिट्टी से पेम्बा के अवशेष मिलते हैं ,पेम्बा –जिसमें एक विशेष महक भी आती थी ,वो ही महक कुछ दिन तक सैनिको को मारे जाने के बाद तक आती थी फिर ग़ायब हो जाती थी।
लार्ड मिपन ने डूंगरपुर के अन्दर पाने जासूसों को बढ़ाना शुरू किया। भील अंग्रेजो को तो अपने आस –पास फटकने भी न देते थे ,उनका साफ़ उसूल थे की गौरों से बातचीत भी नहीं क्यूंकि ये अंग्रेज बातचीत में बहला –फुसला कर चालें चलते थे। बांसवाडा ,प्रतापगढ़ के वोडी जाती के लोगो को लालच व् डराकर अपने जासूसी दस्ते में शामिल कर लिया करते थे। इसी वोडी टोली को भानगढ़ भेजा गया था भानगढ़ के रहस्य से पर्दा उठाने के लिए।
वोडी भील भानगढ़ के भीलों के साथ अच्छे से घुल मिल गए , बोली ,रहन –सहन में इन दोनों में भेद करना मुश्किल था। वोडी भीलों ने पता लगाया की डूंगरपुर के पीठ गाँव के रावले की पास काली का मंदिर है , महर्षी अच्युतानंद जी ने वहां समाधी लगाई है , रावलिया उन्ही का शिष्य है , रावलिया पेम्बा की राख से भस्म बनाता है और भीलों को देता है , भील पेम्बा की राख का छिड़काव कर देते हैं और सारे दुश्मन स्वाहा हो जाते हैं और उनकी राख रावलिया एक कुण्ड में इक्कठा कर रहा है , जिस दिन ये कुण्ड भर जायेगा उस दिन चमत्कार होगा और कुण्ड से ईश्वरीय शक्ति का उद्भव होगा और फिर डूंगरपुर पर ना कोई कब्ज़ा कर पायेगा और ना ही कोई आपदा आएगी। महर्षि का कवच बहुत ही शक्तिशाली है , कोई भी महर्षि के रक्षक रावलिया की इजाज़त के बिना वहां नहीं पहुँच सकता जो ऐसा दु:साहस करता है वो भस्म हो जाता है। जासूस ये भी पता लगाते हैं , की पेम्बा की राख मलकर जाने पर रावलिया के तंत्र –मन्त्र काम नहीं करते हैं।
लार्ड मिपन डूंगरपुर के राज परिवार को सम्मान देने की योजना बनाता है तथा ये भी घोषणा करता हिया की भीलो की संस्कृति को अंग्रेजो का संरक्षण रहेगा , अंग्रेज कभी भी डूंगरपुर की तरफ आँख उठाकर नहीं देखेंगे। लार्ड मिपन डूंगरपुर के महाराज को मदिरा पिला –पिला कर लगभग अचेत कर देता है और धोखे से सारे खजाने के पेम्बा को उस जैसे ही स्वर्ण कोश से भर देता है। भील वोडी उसके इस काम में मदद करते हैं। लार्ड मिपन पेम्बा की राख की भस्म बनवाता है और एक विशेष सेना तैयार करता है जिसके पुरे शरीर पर पेम्बा की मालिश की जाती है। भानगढ़ के भीलों को भी जलसे में आने का निमंत्रण मिलता है। डूंगरपुर का बादल महल सज उठता है –डूंगरपुर के इतिहास के सबसे बड़े जलसे के लिए।
प्रतापगढ़ के वोडिनाथ को भी अपनी सिद्धि के लिए पेम्बा की राख की जरूरत थी , पेम्बा महर्षि का आशीर्वाद ही था की जिस स्वर्ण को महर्षि छु देते थे वो पेम्बा हो जाता था। महर्षि व् रावलिया को इस अमावस्या का इंतजार था , इस अमावस्या को महर्षि व् रावलिया अपने शरीर को यही पर छोड़कर ब्रह्मलोक जाने वाले थे और वहां से माव जी महाराज के जन्म का अध्याय शुरू करने वाले थे। ये वही मावजी महाराज हैं जिन्होंने डूंगरपुर को अजय बनाया है और डूंगरपुर के इतिहास में कई चमत्कार किये। इनकी कहानी विस्तार से अलग अंक में बताई गई है।
वोडिनाथ , लार्ड मिपन अमावस्य के दिन ही भानगढ़ को घेरने का आयोजन करते हैं क्यूंकि महर्षि व् रावलिया के होते वो कुछ भी नहीं कर पाते, ये रात के दो पहर ही उनके लिए अवसर थे जब महर्षी और रावलिया ब्रह्मलोक में होंगे।डूंगरपुर राजमहल व् बाकी सारे लोग डूंगरपुर के भव्य जलसे की तैयारी में लगे थे। वोडिनाथ अंग्रेजो की सेना का प्रतिनिधितत्व कर रहा था। पेम्बा की राख से लिपटी सेना ने भानगढ़ को घेर लिया पर सीमा को वे तभी छु सकते थे जब महर्षि और रावलिया ब्रह्मलोक को जायेंगे। रावलिया की प्रेयसी ने ये सब राज वोडी भील नागेश को बताये थे जो भानगढ़ में रहकर उसपर कई दिनों से डोरे डाल रहा था और अपने प्रेमजाल के वश में उसने प्रियंका – रावलिया की प्रेयसी से ये राज पता चले। एक ओर भानगढ़ के भीलों का नकली समूह डूंगरपुर के जलसे में भाग लेता है जिससे डूंगरपुर के महराज को षड्यंत्र की भनक भी ना लगे। इधर जलसा चल रहा था। लार्ड मिपन , भानगढ़ के नकली भील , अंग्रेजी सेना सब मग्न थे। उधर रात्रि के काल पहर की शुरुआत। महर्षि व् रावलिया के ब्रह्मलोक की ओर प्रस्थान करते ही वोडिनाथ प्रचंड आक्रमण कर देता है ,किसी को सोचने का मौका भी नहीं , बच्चे , बूढ़े , महिलायें सभी को निर्ममता से मौत के घट उतर दिया जाता है , भील जो अपने राजघराने के उत्सव की तैयारी में थे पर भेटं चढ़ जाते हैं नरसंहार की , ये इतिहास के सबसे बड़े नरसंहार में से एक है – भानगढ़ के भीलों का नरसंहार। जलियांवाला तो कुछ भी नहीं इन भीलो के नरसंहार के सामने , पर जलियावाले को इतिहास में जगह तो मिली पर आदिवासियों को इतिहास लिखने वालों ने हाशिये पर रखा। राजा –महाराजा के के इतिहास को तो सभी जानते हैं पर भानगढ़ के भीलों के इस नर संहार को बहुत ही कम लोग जानते हैं – आदिवासी अंचल के लोग या फिर लोक कथाओं में इस घटना का जिक्र मिलता है।
उधर जैसे ही लार्ड मिपन को भानगढ़ के स्वाहा हो जाने की खबर मिली ,उसने पलटी मारी , जलसा युद्ध के मैदान में तब्दील हो गया। डूंगरपुर की जनता बहादुरी से लड़ी पर अंग्रेजो की कुटिलता बहादुरी पर हावी हो गई , महाराज को बंदी बना लिया गया। वोडिनाथ ने महर्षि के शरीर व् राख कुण्ड को नष्ट कर दिया , इससे पहले वोडिनाथ रावलिया के शरीर को नष्ट करता – दो पहर पुरे हो गए। रावलिया लौट आया।
रावलिया ने प्रचंड ध्वनि की , सब जगह राख का गुबार , किसी को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था , पुरे भानगढ़ में सिर्फ राख ही राख और रावलिया की चीख। भस्म लपेटे अंग्रेज सैनिक और भील सब नष्ट होने लगे ,जलने लगे और पेम्बकी सारी राख इक्कठा होने लगी , पूरा भानगढ़ राख हो गया था , आज भी भानगढ़ की मिट्टी काली ही है जबकि पुरे डूंगरपुर की मिट्टी लाल है – भानगढ़ को छोड़कर।माही नदी भी आज भी भानगढ़ में काले रंग में ही बहती है , प्रकृति का अद्भुत नजारा है , भानगढ़ पार करते ही माहि के पानी का रंग साफ़ नीला हो जाता है।
पेम्बा की राख से कुण्ड में भंवर बनने लगे , अब डूंगरपुर की एक अलग ही कहानी की शुरुआत होने वाली थी , डूंगरपुर का इतिहास एक अलग ही मोड़ लेने वाला था , पेम्बा की राख के भंवर से जन्म ले रहे थे – माव जी महाराज। थोड़ी देर के लिए समय भी रुका हो ,माव जी को प्रणाम करने के लिए। शिशु मावजी के तेज से रात्री दिन सी चमक उठी , डूंगरपुर तक इसका असर हुआ , अंग्रेज निस्तेज हो गए , यकायक धराशायी हो गए , जैसे यमराज ने स्वयं आकर उनके प्राण खींच लिए हों। उस दिन के बाद कभी अंग्रेज कभी डूंगरपुर की धरती पर कदम नहीं रख पाए , डूंगरपुर हमेशा आजाद ही रहा।
रावलिया को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ी , वोडिनाथ को पकड़ने व् उसकी सिद्दी को नष्ट करते –करते रावलिया भी उसी भस्म में मिल गया और उस कुण्ड की तली में सिमट गयी वोडिनाथ की राख – कालिख जैसे जम गई। आज भी जब डूंगरपुर के सीमलवाडा ब्लाक के पीठ गाँव में जाते है तो वहां रावला का महल मिलता है , रावलिया का कुण्ड आज भी वहां है जो वोडिनाथ की राख की वजह से काली पेंदी का ही है। मावजी वहां से वेणेश्वर चले गए , वेणेश्वर को ही मावजी ने अपनी कर्मभूमि बनाया और रचा भविष्य और इतिहास –डूंगरपुर का।
मावजी की किताब आज भी सुरक्षित है , हर साल वेणेश्वर मेले के दौरान महर्षि अच्युतानंद जी के वंशज आज भी मावडी भाषा में लिखी किताब को पढ़ने की कोशिश करते हैं तथा एक पन्ना पढ़कर सुनाते हैं। आप लोग मेरी कहानियों में माव जी महाराज के चमत्कारों को विस्तार से जानोगे और विस्मय कर देने वाले डूंगरपुर के रहस्यों को भी।
