दास्तान - ए - मोहब्बत
दास्तान - ए - मोहब्बत
अंग्रेजों की गुलामी के दौर में सच्चे प्यार की अनूठी एवं अनसुनी सी एक दास्ताँ परवान चढ़ी। जो हर किसीको पता होने पर भी अनकहीं-सी रही। और शायद इसी वज़ह से अधूरी भी रहीं।
वे दोनों यही गुनगुनाते रहे ताउम्र ...
-- "हमारी अधूरी कहानी... न हो पाएगी शायद कभी वो पूरी कहानी --
सन १९४२ - ४३ की बात होगी शायद ।लंदन से एक मैम अपने पूरे परिवार के साथ हिंदुस्तान की सैर करने आयीं थीं। हिंदुस्तानी संस्कृति की बहोत सी बातें उसने अपने मुल्क़ में कइयों को कहते हुए सुनी थी। और लिहाज़ा उसी अनदेखी मुहोब्बत के चलते वो हिंदुस्तान दर्शन करने निकल पड़ी।
जवान, और ऊपर से बेतहाशा खूबसूरत बेटी को अकेले ही कैसे हिंदुस्तान दर्शन पर भेज दें। यह मसला अंग्रेज़ पिता ने अपने सहकर्मियों से डिस्कस किया। और तय हुआ कि लखनऊ के एक आधे अधूरे पढ़े - लिखें नौजवां को उसके बॉडीगार्ड के रूप में भेज दिया जाए।अमूमन एक उम्र दराज़ खूबसूरत औरत के साथ लखनऊ का उर्दू भाषी मुस्लिम लड़का, नाम, अन्जान सामी! मैं मुश्किल से पंद्रह साल का रहा होगा। मुझे बतौर बॉडीगार्ड अंग्रेज़ी मैम के साथ हिंदुस्तान दर्शन के लिए रवाना कर दिया गया।
मुझें भी तो सैर सपाटे का शौक़ था। तो मैंने भी तपाक से हामी भर दी।उस सैर में जो देखा वो ज़न्नत से कम नहीं था।ऊँचे नीचे पहाड़ों पर बग्गी में घोड़ेस्वार की बगल में बैठ सैर करना किसको नहीं सुहाता! और तो और मैं भी तो एक बच्चा ही था। जवानी ताज़ा ताज़ा फूट रही थीं। मूँछों को ताव देना अभी कहाँ शुरू हुआ था। मैं, अपने भोलेपन में बहुत सी बातें यूँही बतियाता रहता। और हिंदी गाने गुनगुनाता रहता।
"बरसात में तुमसे मिलें हम सजन, हमसे मिलें तुम, बरसात में..."
अंग्रेज़ी मैम की 'गिटपिट गिटपिट' अंग्रेज़ी भाषा से मैं बिल्कुल भी बेखबर था। पर मुझें वो भाषा के कुछ कुछ शब्द समझ आते थे। और उसीके चलते मैं उस अंग्रेज़ी मैम से टूटी फूटी अंग्रेज़ी बोल लेता और उन्हें हँसाता भी।
और उस ओर लंदन की मैम को भी उर्दू हिंदी भाषा के एक भी अक्षर समझ नहीं आते थे। पर, उसे वो लफ़्ज़ सुनने और दोहराने का ज़ुनून-सा सवार हो चला था मानो। बर्बस, अपने टैंट में अकेले में वही लफ़्ज़ गुनगुनाया करती और मन ही मन मुस्काती भी।बस, फिर क्या था। हम दोनों ने आपस में एक डील क्रेक की। मैं, अन्जान सामी, लन्दन की मैम से अंग्रेज़ी सीखता और मैं अपनी उर्दू ज़ुबान उन्हें सिखाता।
समय बीतता चला गया। तक़रीबन एक वर्ष से भी ज़्यादा वक़्त एकदूसरे के साथ बिताने पर मैम, जो शादीशुदा थीं। फिर भी मुझसे इश्क़ लड़ा बैठी। मैं बेखबरी में यूँही बड़बड़ाता रहता। पर वो मेरे प्यार में पागल सी हो गई। उनकी मोहब्बत परवान चढ़ गई। अपनी सुध बुध खोने के कगार पर थीं वह। और तभी अचानक से उसे लंदन लौटना पड़ा।
मुझें इत्तला करने तक का मौका नहीं मिला उन्हें। और वो परदेसी मैम हिंदुस्तान छोड़कर चली गई। शायद हमेंशा के लिए।अनकहा-सा प्यार का इज़हार मन में ही सिमटने लगा।और तब जाके पता नहीं क्यों, मुझें मैम की कमी खलने लगी। किसी भी काम में जी न लगता मेरा।मामू तो निकम्मा कहने पर उतारू हो गए थे।
एक वक़्त था कि, मामू का कोई भी काम मेरे बगैर पूरा न होता था। और मामू भी मुझें कुछ ज़्यादा ही तवज्जों देते थे।और अब, एक साल अंग्रेजी मैम के साथ क्या बिता कर आया। अछूत सा हो गया था उनकें लिए।और मैं भी तो मजनुओं की तरह दरबदर भटकते रहता था। किसी भी काम में खुदको १०० फीसदी घुसेड़ने की कोशिश करता। पर कामयाब न होता।
अब्बू और अम्मी ने शायद भाँप लिया था कि, हमें इश्क़ का भूत सवार हुए है। पर वे अंग्रेजी मैम के बारे में नहीं मेरे क्लास की फुफेरी बहन के बारे में सोच रहे थे।और तभी मैंने ही बम विस्फोट किया। कि, मुझें अंग्रेजी मैम बहोत पसंद है।बस, फिर क्या था! गली मोहल्ले के छोटे मोटे सभी को मौका मिल गया मुझें ताड़ने का।मेरे सारे दोस्त, साथी और तो और सारे घर- परिवार वाले मुझें अंग्रेज़ी मैम को भूलने की हिदायतें देने लगे।
साल, दो साल, चार साल यूँही बीत गए। मैं भी अब सयाना होने लगा था। पर एक बात बहुत अच्छी बनीं। कमज़ोर अंग्रेज़ी के चलते पढ़ाई में पीछे रहनेवाला मैं, अन्जान अब अफसरों की भाँति अंग्रेज़ी बोल - लिख एवं पढ़ लेता था। उसीके चलते मेरा पढ़ाई के साथ साथ अफसरों के साथ उठना बैठना होने लगा था।
मुझे अपना नाम लेकर बात करने की आदत सी पड़ गई थीं। शायद उस खूबसूरती से ही सीखा था अपनेआप को इम्पोर्टन्स देना। प्रथम पुरुष वाचक में बात करना।
अन्जान सामी, यानी कि मेरे परिवार वाले मेरे इस हरकतों से बहुत ही ख़फ़ा रहा करते थे। उनका मानना भी लाज़मी ही था।
अंग्रेज़ो की न दोस्ती अच्छी और ना ही दुश्मनी। वो हमसे और हम उनसे जितने दूर, उतनी ही अपनी सुकून भरी जिंदगी में खलबली कम मचेगी।'पर, परिवार वाले या यार दोस्तों को क्या पता कि, मोहब्बत की आग जो लगी थी तनबदन में। वो ऐसे कैसे बुझेगी! बिना किसी मुसीबत के!!
***
सन १९४७ के जुलाई माह में अंग्रेज़ी मैम एक बार फिर लखनऊ आयीं। और अपने पिता के दफ्तर में काम कर रहे दफ़्तरी बाबू से अन्जान सामी के, बारे में पूछताछ कर उसे मिलने उसकी कॉलेज चली गई।अंग्रेज़ों का राज अभी भी हिंदुस्तान पर उतना ही तंग था। हाँ, थोड़ी बहुत हरकतें चल रही थी राजनैतिक तौर पर। लेकिन इन सबसे बेख़बर दो दिल सिर्फ अपने मेमोरीज में ही जी रहे थे।
लखनऊ कॉलेज में हल्ला मचा हुआ था। और तो और अब तक जो अन्जान सामी की मोहब्बत को झुठला रहे थे। या उसका मजाक बनाकर उसको छेड़ रहे थे। उन सभी की बोलती बंद हो गई प्रिंसिपल सहित सारे प्रोफेसर्स कॉलेज के आँगन में इकट्ठा हो गए।
उन दोनों की मोहब्बत सरेआम हो गई। सीक्रेट्स ऑपन हो गए। अंग्रेज़ों की छावनी में बात आग की तरह फैल गई।
सरेआम सबके सामने इज़हार - ए - मोहब्बत ने अन्जान सामी की ज़िंदगी दोज़ख़ से भी बत्तर बना दी।एक ओर स्वतंत्र्य सेनानी जेल की सलाखों के पीछे आज़ादी की लड़ाई लड़ते लड़ते अपनी जानें कुर्बान कर रहे थे। और दूसरी ओर एक नौजवां अपनी परवान चढ़ी बेज़ुबाँ मोहब्बत के चलते अपनी आज़ादी गँवा चुका था।आज़ाद हिंद से अंग्रेज़ी मैम ने एक तोहफ़ा माँगा। और अन्जान सामी को अपने साथ लंदन ले गई।लंदन में वो रानी थीं। उसके राज में अन्जान सामी उसका खास बाशिंदा बनकर रहने लगा।
दोनों के दरम्यां उम्र का लंबा फांसला था। जो तय करना अमूमन नामुमकिन था। पर, राजनैतिक एवं हर एक मामलों में रानी साहिबा अपने आशिक़ अन्जान से सलाह मशविरा करती। और उसीके चलते हिंदुस्तान को बहुत सी रियायतें भी मिली।२५ साल की मोहब्बत के चलते एक दिन रानी ज़न्नत नशीं हो गई।
अन्जान सामी, मोहब्बत के नाम पर कुर्बान होने के पूर्व हिंदुस्तान लौट आया।उसके बाद भी शायद से वो और सात आठ साल गुमनामी की ज़िंदगी जिया।इतिहास के पन्नो पर क्रांतिकारियों की लिस्ट में कहीं भी उसका नाम दर्ज नहीं था।लेकिन,
एक सच्ची मोहब्बत की दास्तानगोई में लखनऊ के नौजवां आज भी उसकी यानि की मेरी नाक़ाम मोहब्बत के चर्चे दोहराते थे। कसमें खाते थे। क़सीदे भी पढ़े जाते थे।और गुनगुनाते भी रहतें आज के दौर का वो गीत जो उनकी मोहब्बत को सलाम करता था -
"हमारी अधूरी कहानी...
दिल में बसी, दिल में ही सँवरी,
दिल से ही गुज़रकर चली गई..."
