बालिका मेधा 1.16
बालिका मेधा 1.16
दादा जी के स्वर्गवास के दुःख के बाद, अगले माह में हमारे आनंदित होने का अवसर आया था। मम्मा को कंपनी में प्रमोशन मिला था। प्रमोशन तो जॉब करने वाले सभी को मिलता ही है। यहाँ अधिक प्रसन्नता वाली बात यह थी कि जिस प्रोन्नति (Promotion) के लिए सामान्यतः चार वर्ष लगते थे, मम्मा के अच्छे परफॉरमेंस के कारण उन्हें अढ़ाई वर्ष में ही यह पदोन्नति (Promotion) मिली थी।
शनिवार वीक एन्ड पर मम्मा ने अपने सहकर्मियों (Company colleagues) एवं परिचितों (Acquaintances) को होटल में पार्टी दी थी। वहाँ हमने बहुत आनंद (Enjoy) लिया था।
अगले दिन सब देर से सोकर उठे थे, अतः हमने नाश्ता देर से किया था। दोपहर के भोजन की इच्छा नहीं होने से मम्मा ने तब टीटी खेलना तय किया। आज पापा भी खाली (Free) थे, उन्होंने भी साथ खेलने की इच्छा जताई थी। हालांकि पापा बैडमिंटन अधिक अच्छा खेलते हैं।
हम सब साथ, खेलने आए थे। तीन प्लेयर होने से पापा, मम्मा और मेरा मैच देखने लगे थे। मेरा अच्छा गेम देखकर वे आश्चर्यचकित थे। वे इससे खुश भी बहुत हो रहे थे तब संयोग से चरण भी एक लड़के के साथ टीटी खेलने आया था। उसने बिना संकोच मम्मा के साथ खेलने की इच्छा जताई थी। चरण का यह कहना, पापा को अधिक समझ नहीं आया था। जब चरण और मम्मा खेलने लगे तब चरण का फ्रेंड अंशुमन एवं पापा दूसरी टेबल पर खेलने चले गए थे।
मम्मा ने पहले गेम में चरण को खिलाते हुए जीतने दिया था। फिर अगले गेम में बहुत सुंदर खेल दिखाते हुए चरण को हराया था। चरण ने अधिक कुछ नहीं कहते हुए कहा था -
आंटी आप बहुत अच्छा खेलती हैं। आज मुझे समझ आ गया है कि कैसे मेधा छोटी और लड़की होकर, मुझे हरा दिया करती है।
मम्मी तो बच्चों के मनोविज्ञान को अच्छे से समझती हैं उन्होंने इस पर कहा -
चरण बेटे, तुम भी बहुत अच्छा खेलते हो। कभी कभी बहुत दुखी या बहुत प्रसन्न होने के समय में हमारे खेल या काम में अद्भुत एकाग्रता आ जाती है। आज मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ। इसी कारण मेरे बैक हैंड एवं टॉप स्पिन सर्विस सारी ही टेबल पर सही जगह पड़ रही थीं। हो सकता किसी अन्य समय में तुम मुझे आसानी से हरा दो।
चरण मितभाषी लड़का था। उसने कुछ कहा नहीं, सिर्फ मुस्कुरा दिया था। फिर हम वापस आ गए थे।
मैं मम्मी की दी गई डायरी में लिखने लगी थी। अतः मेरे प्रमुख प्रश्न, किसी समय मन में उठीं मेरी जिज्ञासाएं विस्मृत नहीं होने पातीं थीं। अगले कुछ माह फिर संयोग नहीं बन पाया था कि मैं और मम्मा कोई विशेष चर्चा कर पाते। निर्भया मेरे मन से निकल नहीं पाती थी। उस के साथ हुई क्रूरता के कारण दोषियों को, फास्ट ट्रैक कोर्ट फाँसी की सजा सुनाती है या नहीं? अपनी पढ़ाई के बीच अंतर्मन में इस प्रश्न पर मेरी उत्सुकता लगातार बनी हुई थी।
अंततः 13 सितंबर 2013 को फैसला आया और सबको फाँसी दी गई। मुझे संतुष्टि हुई थी। इसमें एक नाबालिग दोषी की सजा पहले ही 11 जुलाई 2013 को तय हो चुकी थी।
वह रविवार दिन अवकाश का था। दोपहर मैं इसे लेकर मम्मी से बात कर रही थी।
मैंने पूछा - मम्मी निर्भया के दोषियों पर फैसला आ गया है। मुझे उस पर अपने मन में उठ रहे कुछ प्रश्नों के उत्तर आपसे चाहिए हैं।
मम्मी ने कहा - मेधा क्या अभी तक तुम्हारे मन में उसी का डर समाया है?
मैंने कहा - मम्मा, अब डर तो नहीं रहता मगर इसका क्षोभ (Annoyance) रहता है।
मम्मा ने कुछ पल स्नेह से मुझे निहारा फिर कहा - अच्छा, बताओ तुम्हारे क्या प्रश्न हैं?
मैंने पूछा - मम्मा, अगर निर्भया पर दुराचार एवं हत्या के सभी अपराधी नाबालिग होते तो क्या इस जघन्य हत्या (Ghastly Murder) के लिए किसी को भी फाँसी की सजा नहीं होती?
मम्मा चकित होकर मेरा मुख देखने लगीं थीं। उन्होंने समझ लिया कि मैं, नाबालिग के द्वारा किए समान अपराध के लिए, समान सजा नहीं होने को लेकर सोच रही हूँ। अंततः हार जाते सा हुआ उत्तर उन्होंने दिया -
मेधा, कितना तार्किक (Logical) चलता है तुम्हारा दिमाग, शायद ऐसा केस कभी नहीं हुआ है इसलिए कानून में ऐसा ही प्रावधान है।
मैंने मम्मी को वैचारिक (Conceptual) कठिनाई से मुक्त करने के लिए नाबालिग के संबंध में कोई और बात न करते हुए, दूसरा प्रश्न पूछा -
मम्मा, अच्छा यह बताइये कि इस हत्याकांड में, निर्भया अर्थात एक की मौत हुई थी। क्या एक की मौत के बदले में चार को मौत की सजा देनी चाहिए?
मम्मा फिर कुछ पल मेरा मुख देखते रह गईं थीं। फिर उन्होंने कहा - मेधा, तुम फुरसत प्राणी, तुम इतना सोच रही हो। अति व्यस्त अब की दुनिया को इतना सोचने की फुरसत नहीं है। कह कर वे मुस्कुराने लगीं थीं।
मैंने शिकायती स्वर में कहा - मम्मा यह क्या? आपने मेरा प्रश्न ही गोल कर दिया।
मम्मा ने कहा - मेधा, तुम इसके बाद एक और प्रश्न करने वाली हो कि दाऊद इब्राहिम हजारों की मौत का दोषी है, उस एक को ही हम मौत की सजा नहीं दे पाए?
मैंने कहा - हाँ मम्मा, मेरा प्रश्न किसी नाम के उल्लेख से नहीं होता मगर इससे मिलता जुलता यह होने वाला था कि हजारों की हत्या के अपराधी को एक बार मौत की सजा दी जा सकती है। एक का हत्यारा और हजारों के हत्यारे की सजा क्या, एक ही होती है?
मम्मी ने अब बताया - मेधा, कानून तो मैंने नहीं लिखे हैं फिर भी अपनी समझ से मुझे लगता है कि जीवन में हर मनुष्य के साथ दो बातें होती हैं। एक, उसके प्राण एवं दो, उसका मान।
अब इसे निर्भया के केस में समझें तो निर्भया के ‘प्राण एवं मान’ (Life and honor) लेने वाले छह दोषी थे। एक ने फाँसी लगा ली और चार को मृत्यु दंड सुनाया गया। अर्थात इसमें पाँच अपराधियों के प्राण जाने की बात हुई है। एक के ‘प्राण एवं मान’ लेने के लिए पाँच दंडित हुए हैं। वास्तव में ‘प्राण और मान’ का संयोग दुनिया में हर व्यक्ति को, शेष पूरी दुनिया के बराबर बना देता है। हरेक के जीवन का महत्व उसके अपने स्वयं के लिए सारी दुनिया से अधिक होता है। किसी के होने पर ही उसके लिए यह दुनिया होती है।
मैं उनकी बात समझने की कोशिश में अब चुप रह गई थी।
(क्रमशः)
