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Diwa Shanker Saraswat

Others

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Diwa Shanker Saraswat

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अपशगुनी

अपशगुनी

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 रंभा ने न जाने कितनी औरतों का जापा किया था। जाति से धानुक और काम से दाई, रंभा के जीवन में खुशियां थीं तो बस इतनी कि उसे काम के चलते लोग पूछ लेते थे। वैसे जन्म लेते ही माॅ मर गयी। व्याह के तुरंत बाद उसका आदमी मर गया तो फिर कोई उसे अपशगुनी क्यों न माने। रंभा खुदकिस्मत थी कि लोगों की नजर में वह अपशगुनी थी। अन्यथा उसे डायन भी माना जा सकता था। 


 रंभा की खूबी थी, उसका हुनर। जो मामले अच्छे से अच्छे डाक्टर बिगाड़ देते, रंभा को उन्ही के लिये याद किया जाता था। पूरे इलाके में उसकी धाक थी। फिर भी मांगलिक कार्यों से वह हमेशा दूर रखी जाती। रंभा खुद भी खुद को अपशगुनी मान चुकी थी। तभी तो किसी के भी जन्म दिन, विवाह आदि मांगलिक कार्यों से खुद को दूर रखती। 

  

  ठाकुर साहब के छोटे बेटे का विवाह था। घर में नयी बहू आयी थी। सारे गांव की औरतें ठाकुर साहब की चौखट पर जमीं थींं। कुछ कुल में बड़ी तो बहुत सी छोटी जाति की औरतें अपना नेग मांगने को मौजूद थीं। उसी मांगलिक समय पर ठाकुर साहब के बड़े बेटे की गर्भवती पत्नी के पेट में दर्द शुरू हुआ। वैसे रंभा पास ही रहती थी। पर ठाकुर और उसके बेटे दूर दूर तक घूम आये। फिर एक डाक्टरनी को खुशामद कर लेकर आये। ऐसे मांगलिक समय पर एक और खुशखबरी ठाकुर साहब का इंतजार कर रही थी। और रंभा जैसी अपशगुनी को उस समय बुलाना सचमुच मूर्खता है। 


 " अरे। क्या हालत बना रखी है आपने बहू की। इस तरह कोई गर्भवती स्त्री को रखता है क्या?" 


 वैसे ठाकुर साहब के घर खाने पीने की कोई कमी न थी। पर छोटे बेटे के विवाह के अवसर पर थोङी लापरवाही बहू से हुई और कुछ घर बालों से। रंग में भंग पड़ गया। 


 " मैडम। किसी भी तरह आप मेरी बहू को बचा लो। "


 कभी नाती की चाहत में ठाकुर ने बड़े ब्रत किये। चाहत तो सभी को बेटों की ही होती है। बेटियां तो हो जाती हैं। ठाकुर साहब भी कोई अलग न थे। पर अब उनकी चाहत केवल पुत्रवधू का जीवन थी। पर डाक्टर खुद को उसमें भी अक्षम देख रही थी। 


 " डाक्टर। क्या कुछ नहीं हो सकता। क्या छोटी बहू के आगमन के साथ बड़ी बहू हमारे घर से विदा हो जायेगी। ठकुरानी के गुजर जाने के बाद कितनी होशियारी से बड़ी बहू ने घर को सम्हाला है। जितना भी पैसा लगे, ले लो। पर बहू को बचा लो।" 


 पर डाक्टरनी ने हाथ जोड़ लिये। किसी बड़े शहर ले जाओ ठाकुर। हमारे वश में कुछ भी नहीं है। हाथ में तो शायद किसी के भी कुछ नहीं है। 


 रंभा आज घर से भी बाहर न निकली थी। पड़ोस में मांगलिक कार्यक्रम है और कुछ गलत हो गया तो। जो देखते और सुनते आये हैं, वही मन में बस जाता है। 


 " कुछ पता है कम्मो। ठाकुर साहब की बड़ी बहू दुनिया छोड़ने बाली है। छोटी के पैर घर में ऐसे पड़े कि सर्वनाश होने लगा।" 


 बाहर शे महिलाओं की आवाज आ रही थी। वैसे भी गांव में महिलाओं को चर्चा करने में विशेष आनंद आता है। 


  " लगता है कि ठाकुर साहब धोखा खा गये। छोटी बहू अपशगुनी है। अपशगुनी के पैर घर में पड़ते ही घर में आपदा आ गयीं। अब ईश्वर रक्षा करे तभी कुछ हो सकता है। "


 तुरंत रंभा का दरबाजा खुला। एक अपशगुनी नवव्याहता को आपशगुनी बनने से रोकने चल दी। बृद्ध शरीर। तेज नहीं चला जाता। रंभा अपने हिसाब से बहुत तेज चलने लगी। यमदूतों के आगमन से पूर्व उसे ठाकुर साहब की हवेली पहुंचना है।


 थोङी देर में ठाकुर साहब की हवेली से बच्चे की किलकारी की आवाज आने लगीं। अपने आयुर्वेदिक तजुर्बो का वह बड़ी बहू पर तब तक प्रयोग करती रही जब तक कि वह खतरे से बाहर न हो गयी। 


  " रंभा। मैं तेरा उपकार चुका नहीं सकता। तुच्छ भेंट स्वीकार करो।" 


 रंभा की झोली बहुमूल्य भेटों से भरी हुई थी। उपहारों से लोभ सभी को होता है। रंभा भी बहुत खुश थी। कि अचानक... ।


  छोटी बहू ने रंभा के पैरों पर अपना सर रख दिया । 


  " अरे। यह क्या बहुरिया। तुम्हें पता भी है कि हम कौन जात हैं। "


". नहीं चाची ।पर आप आज वह देवी हो जिसने मुझे अपशगुनी बनाने से बचाया है।" 


 अभी तक खुद को अपशगुनी मानती आयी रंभा अचानक खुद को देवी मानने लगी। फिर देवी अपने भक्तों को कैसे वरदान न दे। रंभा की झोली भरी हुई थी। सारा उपहार उसने नवविवाहिता की झोली में डाल दिया। 


  एक नवविवाहिता को अपशगुनी बनने से बचाकर अब एक अपशगुनी सचमुच की देवी लगने लगी। 



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