अकेलापन

अकेलापन

2 mins
483


“दादाजी, आप हमेशा द्वार पर क्यूँ खड़े रहते हैं ?”

“अरे, कुछ नहीं, तू ..नहीं समझेगा।  जल्दी से बता, आज स्कूल में क्या सब हुआ ?”

“पहले आप बताइए... नहीं तो मैं आपसे बात नहीं करूंगा। 

“अच्छा... बताता हूँ ... तू नाराज़ मत हो ! यहाँ से मैं बाहर, प्रकाश को देखता रहता हूँ।  बंटी, जैसे तुझे स्कूल से आने का इंतज़ार रहता है न..वैसे ही मुझे संध्या होने का। 

मैं, बंटी की मासूमियत पर हमेशा फ़िदा रहता और वो मेरी बातों पर स्कूल से आने के बाद हम दोनों घंटों मन की बातें किया करते। 

“दादाजी, सभी...उगते सूरज को देखना पसंद करते हैं और आप... डूबते सूरज की क्यों प्रतीक्षा करते हैं ?”


“ हाहा, कैसे समझाऊँ तुझे? जब से तुम्हारी दादी इस दुनिया से गई... तभी से मुझे शाम ढलने का इंतज़ार रहता है। 

“क्यूँ , आपको घर में मन नहीं लगता ?”

“रे...तू स्कूल चला जाता और तेरे मम्मी-पापा ऑफ़िस चले जाते। मैं, इस कमरे में दिन भर बेकार पड़ा रहता हूँ। फ़ालतू सामान की तरह, मैं इस घर में बोझ बनकर रह गया हूँ ! इसलिए तो दिन भर, बाट जोहता रहता हूँ, कि कब, जीवन-संध्या मुझे अपनी आगोश में ले ले... और मैं... झट..तेरी दादी के पास पहुँच जाऊँ

“आप दादी के पास चले जाइएगा ...तो .. फिर.. मेरे साथ कौन बातें करेगा ?” कहते हुए रुआंसा होकर , बंटी नन्हें हाथों से मेरे पैरों को जकड़ लिया मेरा रोम-रोम सिहर उठा। 


पत्नी की मुँह से निकली आखिरी बातें, “बंटी अकेला पड़ जाएगा, आप बंटी को छोड़कर कहीं मत जाइएगा। “दोनों की आवाजें ...एक साथ, मेरे अंतर्मन को कील की तरह बेधने लगा।  "तुझे छोड़कर, मैं कहीं नहीं जाउँगा, नहीं जाऊँगा ...."फफकते हुए मैंने बंटी को सीने से लगा लिया। 



Rate this content
Log in