हरि शंकर गोयल

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हरि शंकर गोयल

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आखिरी रात

आखिरी रात

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आज सुबह सुबह श्रीमती जी ने फरमान सुना दिया कि "आखिरी रात" पर एक व्याख्यान देना है। आप तो लेखक हैं कुछ लिख कर दीजिए न इस विषय पर जिससे मैं उस व्याख्यान को अमर कर सकूं।मैंने कहा "भाग्यवान , एक तो विषय ही "आखिरी रात" है तो व्याख्यान अमर कैसे हो सकता है ? जब रात ही नहीं रहेगी तो व्याख्यान कहाँ से रहेगा" ? 

"आपको तो मसखरी के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं है। कभी तो सीरीयस हो जाया करिये" 

"अजी सीरीयस होते ही जिंदगी बोझ लगने लगती है। हलके फुलके रहते हैं तो तरो ताजा बने रहते हैं। हलके फुलके रहने से मन भी प्रसन्न रहता है और बी पी, दिल की बीमारी, डायबिटीज वगैरह से भी बचे रहते हैं। जो हमेशा सीरीयस रहते हैं वे हमेशा डॉक्टर्स के चक्कर काटते रहते हैं। हम तो शादी के समय भी सीरीयस नहीं थे तो आज कैसे हो सकते हैं" ? 


तीर सही निशाने पर लगा। वे भड़क गईं। कहने लगीं "जाओ जाओ, आप क्या सीरीयस होते ? ये तो हमने आप पर मेहरबानी कर दी वरना अभी तक कंवारे घूम रहे होते"। 


"अभी तक मलाल है आपको अपने निर्णय पर ? यदि ऐसा है तो छोड़ दीजिए हमें हमारे हाल पर। हम कोई और ठिकाना ढ़ूंढ लेंगे। कोई ना कोई तो मिल ही जाएगी"। 


"तुम मर्दों को अभी भी शादी करने की पड़ी रहती है। अपनी उम्र का तो खयाल करो कम से कम। अब छोड़िए इस टॉपिक को। यह तो अनंत है। इस पर आज तक कभी हम किसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं क्या ? तो बताइये , लिख रहे हैं ना" ? 


सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवहेलना करने की जुर्रत किस में है ? ये काम या तो कोई नामी गिरामी वकील जो आतंकियों की पैरवी करते हैं, वे कर सकते हैं या फिर कुछ अराजक तत्वों के समूह जो आंदोलन के नाम पर अराजकता का नंगा नाच करते रहते हैं वे ठर सकते हैं और सुप्रीम कोर्ट मूकदर्शक बनकर देखता रहता है। हम इन दोनों ही श्रेणी में नहीं आते हैं इसलिए हमारे ऊपर अवमानना का डंडा चल सकता है। अतः हमारी इतनी हिम्मत कहाँ ? हम इतने बेशर्म भी नहीं हैं। 


हमने पूछा "लिख तो देंगे मगर यह तो बताओ कि कौन सी आखिरी रात ? प्यार की , खुशी की, गम की, भूख की, गरीबी की, बेरोजगारी की, मंहगाई की, अराजकता की, हिंसा की, सांप्रदायिक दंगों की, भड़काऊ भाषणों की , झूठे वादों की, भ्रष्टाचार की, कुशासन की या और कोई सी ? किस आखिरी रात पर लिखें हम" ? 


हमारे द्वारा बताये गये इतने विषयों को सुनकर वे दिग्भ्रमित हो गई और कहने लगीं "ये तो हमें बताया ही नहीं गया। अब क्या करें ? फोन करके पूछ लूं " ? 


"अजी छोड़िए भी। फोन से क्या पूछना। जिन्होंने टॉपिक दिया है वे इतना कहाँ सोचते हैं। उनमें अगर इतना ही दम होता तो वे भी हमारी तरह लेखक बन जाते ? पर कोई बात नहीं। हम ऐसे लोगों की रग रग पहचानते हैं। उन्होंने निश्चित रूप से साल 2021 की आखिरी रात पर व्याख्यान देने के लिए कहा होगा"। हमने अपना ज्ञान उंडेल दिया। 


"ये सच कह रहे हैं आप। आज 31 दिसंबर है। वर्ष 2021 का अंतिम दिन। जब दिन अंतिम है तो रात भी अंतिम यानि कि आखिरी ही होगी। इसी पर लिख दीजिए आप तो। फिर वहां का माहौल देखकर बोल दूंगी"। 


"वैसे तो कुछ भी बोल दो क्या फर्क पड़ता है। हमारे देश के एक विदेश मंत्री संयुक्त राष्ट्र में जिस विषय पर भाषण देना था उस विषय के बजाय दूसरे विषय पर भाषण दे आये। उनका बिगड़ा कुछ ? मीडिया पर आये दिन डिबेट रूपी चीख चिल्लाहट में पार्टी प्रवक्ता उस दिन के टॉपिक के बजाय और दूसरे विषयों पर ही बोलते रहते हैं क्योंकि उनको वही स्यूट करता है। इसलिए आप अगर वहां आखिरी रात के बजाय आखिरी बात पर भी बोल आयेंगी तो क्या फर्क पड़ने वाला है ? कौन सुनता है इन व्याख्यानों को" ? 


हमारी इस बात से वे चिढ़ गईं। कहने लगीं "आप कैसे कह सकते हो कि कोई नहीं सुनता है व्याख्यानों को ? अगर कोई नहीं सुनता है तो लोग तालियां क्यों बजाते हैं" ? 


उनकी इस मासूम सी बात पर हमें हंसी आ गयी। हमने कहा "इसका हमें बहुत बढिया अनुभव है। मैं बताता हूँ आपको। जिस तरह मैं अपनी कोई रचना कहीँ पर भी पोस्ट करता हूँ तो तुम क्या समझती हो कि लोग उसे पढ़ते हैं" ? 


"हां पढ़ते हैं। मैंने तो उनकी समीक्षाएं भी पढ़ी हैं"। 


"बस, यहीं तो मात खा गयीं आप। लोग बिना पढ़े समीक्षा लिखते हैं। अजी लिखते क्या हैं कॉपी पेस्ट करते हैं। मजा तो तब आता है जब किसी रचना के पाठकों की संख्या से ज्यादा संख्या में समीक्षाएं आ जाती हैं तब पाठकों के इस "अद्भुत प्रेम" का पता चलता है। आप क्या समझती हो कि लोग व्याख्यान पर ताली बजाते हैं ? जी नहीं , वे व्याख्यान पर ताली नहीं बजाते वरन् व्याख्यान समाप्त होने पर ताली बजाते हैं कि चलो एक से तो पीछा छूटा। अब अगले को देखते हैं। जितना ज्यादा खराब और लंबा व्याख्यान उतनी ही देर तक तालियां। "जान बची और पीछा छूटा" इस अहसास के साथ तालियां बजती हैं। यहां लेखन में भी यही हाल है। अगर ज्यादा समीक्षाएं चाहिए तो दूसरे लेखकों की रचनाएँ ज्यादा पढ़नी पड़ेंगी। ना केवल पढ़नी पड़ेंगी अपितु उन पर समीक्षा भी करनी पड़ेगी। इतना समय किसके पास है आजकल। इसलिए बिना पढे ही समीक्षा ठोक देते हैं। "बहुत खूब, लाजवाब, शानदार, बेमिसाल, क्या बात है" वगैरह वगैरह। सामने वाला भी खुश और हम भी खुश। अदला बदली का मामला है। तू मेरी कर और मैं तेरी करूं। बस, यही चलता है"। 


"इतनी लंबी चौड़ी बात सुना दी आपने पर काम की बात एक नहीं सुनाई। अब बताओ"। 


"क्या बताएं मैडम ? 2021 की एंट्री ही अराजक माहौल में हुई थी। तथाकथित किसान आंदोलन के नाम पर सड़क से संसद तक अराजकता देखने को मिली। पूरी दिल्ली , पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश बंधक बने रहे। सरकार और न्यायालय तमाशा देखते रहे। लोग परेशान होते रहे। इस तथाकथित आंदोलन में खालिस्तानी , पाकिस्तानी , विरोधी लोग अपना ऐजेंडा चलाते रहे। देश को कमजोर करते रहे। राष्ट्र ध्वज का 26 जनवरी को अपमान किया। लोगों की हत्या कर उन्हें सूली पर टांग दिया। बलात्कार हुये। फिर भी ये तथाकथित किसान बेशर्मी से भौंकते रहे। कोरोना के दूसरे संस्करण 'डेल्टा' से लोग मरते रहे। ऑक्सीजन के लिए लड़ते झगड़ते रहे। बैड उपलब्ध नहीं , दवाई नहीं , ऑक्सीजन सिलेंडर नहीं और बेशर्म नेता करोडों रुपये इस बात के विज्ञापनों पर फूंकते रहे कि उन्होंने कोरोना में कितना महान काम किया है। जो बजट उन्हें ऑक्सीजन प्लांट स्थापित करने में खर्च करना था उसे विज्ञापनों पर खर्च करते रहे। और मीडिया की बेशर्मी देखिए कि ऐसे मक्कार नेताओं से ऐसे प्रश्न पूछने के बजाय उनका महिमा मंडन करते रहे। दरअसल यह साल गिरावट का साल रहा। सब जगह गिरावट नजर आई। संसद , कार्यपालिका, न्यायपालिका, मीडिया और जनता के चरित्र में। एक राज्य के चुनावों के परिणाम आने के बाद उस राज्य में विजेता राजनीतिक दल के गुंडों द्वारा विपक्षी दल के कार्यकर्ताओं की सामूहिक हत्या , उनकी मां बहनों के संग बलात्कार होता रहा। लोग पलायन करते रहे और सरकारें सोती रही। एक हत्या पर स्वतः संज्ञान लेने वाले न्यायालय आंख कान बंद कर मूक बनकर बैठे रहे। इन सबके लिये ही जाना जायेगा यह साल "। क्रोध से हमारे नथुने फड़कने लगे। पर हम जैसे कलम घसीटुओं को कौन पढ़ता, सुनता है ? बीवी बच्चे तक नहीं सुनते औरों की तो बात ही क्या है ? 



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