498 (ए) ..

498 (ए) ..

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"तुम्हारे, पापा में इतना भी तमीज नहीं कि डिलीवरी पर इतना अस्पताल-दवाओं के हुए खर्च के कुछ रूपये देते?"

सुनकर, शीतल तमतमा गई थी, "कहा था, उनको अभी मेरे भाई की पढ़ाई पर बहुत खर्चे का भार है। आप, उनके लिए आदर से कह सकते हो तो कहो, नहीं तो चुप रहो!"

मैंने, शीतल को और उकसाने के लिए, तीक्ष्ण शब्द का बाण फिर चलाया था, "शक्ल न सूरत पर जबान तो देखो कितनी चलती है, तुम्हारी!"

इससे शीतल को और आग लग गई थी, उसने कहा - "अपनी देखते, आईने में पहले!"

(उसने कुछ और कहते कहते, स्वयं को रोक लिया था। )

मैंने, अपनी सोची-समझी चाल अनुसार, उसे भड़काने के लिए फिर उलाहना दिया, "ना पैसा, ना शक्ल और ना ही ठीकठाक चरित्र- मेरी अक्ल पर पाला पड़ गया था, जो तुम्हें ब्याह लाया!"

चरित्र पर लाँछन वाले शब्दों से उसका धैर्य चुक गया- वह आक्रामक हो गई, तैश में बोल पड़ी, "अपने चरित्र को देखलो, खूबसूरत लड़कियों पर लार टपकाती भँगिमा से घूरते रहते हो।"

यह मेरी योजना अनुकूल था, अब -मैंने, उसके गाल पर, थप्पड़ रसीद किया, अंदर शाँत मगर प्रकट में चिल्ला कर बोला- "इतनी ही शिकायत है मुझसे तो, निकल क्यूँ नहीं जाती, मेरे घर से?"

मुझसे पहली बार, पिटने के कारण वह रो पड़ी, कहा- "सबेरे चली जाऊँगी, दीप (हमारी महीने भर पहले जन्मी बेटी) को लेकर! तब तक सब्र रखो।"

फिर मैं सो गया था, सुबकते सुबकते शायद वह देर तक नहीं सो पाई थी।अगली सुबह उसने, अपने और दीप के कपड़े समेटे थे और मायके (इसी शहर में था) के लिए ऑटो बुलाकर चली गई थी।

मम्मी, पापा और मेरी बड़ी बहन (जो अभी यहाँ आई हुई थी) ने उसे रोकने-मनाने की कोई कोशिश नहीं की थी।उसके जाने के बाद दिन भर पापा के साथ, अपनी दुकान पर रहा। रात्रि, बिस्तर पर बहुत दिनों बाद अकेला था। मेरे मन में पिछली यादों का सिलसिला चलने लगा था।

 

हमारी शादी लगभग 3 वर्ष पूर्व हुई थी। ठीक ठाक कमा नहीं पाने के कारण, जैसी सुंदर लड़की और जैसा धनवान ससुराल मुझे चाहिए था, वैसा रिश्ता कोई मिला नहीं था। ऐसे में मेरी, तब उम्र 30 वर्ष हो गई थी। जो थोड़े रिश्ते पहले आते थे, वे भी आने बंद से हो गए थे। तब विवाह को मैं, मरने लगा था। इसलिए शीतल के घर से जब रिश्ता आया तो एक तरह से लपक कर मैं उसे ब्याह लाया था।

कहते हैं, सुविधा मिलने लगे तो आदमी पसरता ही जाता है। अतः जब शादी हो गई तो ससुराल से, आभूषण-वस्त्र और सुविधा सामान भी आता रहे, इस हेतु मम्मी, शीतल को सुना दिया करतीं। मेरी बड़ी बहन सुंदर थी, जब वे मायके आतीं तो साधारण रूप रंग पर वे शीतल को हीनता बोध करा देतीं।

शीतल में मिलनसारिता गुण था, जिससे उसके मायके से फुफुरे-ममेरे उसके कोई भाई आते उनसे वह बड़ी गर्मजोशी से मिलती थी। ऐसा मिलना अनावश्यक ही मुझे संदेह में डालता था। कभी इस पर मैं रोकटोक कर देता था।


आज के पहले यह सब एक साथ कभी न हुआ था। आज सारी बातें, एक ही समय में, मैंने उससे कह डालीं थीं। इसका असर शीतल पर इसलिए और ज्यादा हुआ था कि बोलने वाला मैं, उसका जीवनसाथी था।मैंने एक साथ, सारे हमले उस पर यूँ ही नहीं किये थे। अपितु उसे घर से निकालने की परिस्थिति निर्मित करने की यह मेरी कुत्सित चाल थी। वास्तव में, शीतल गर्भवती हुई थी, तबसे मेरे सहित घर के सभी लोग, बेटा चाहते थे, जबकि पैदा बेटी हुई थी।

समाज चलन बदल रहा था, जिसमें बेटियाँ भी, बेटे जितनी, पढ़ने-लिखने वाली, हर बड़े काम अंजाम दे सकने वाली, तथा धन उपार्जन के व्यवसाय/कामकाज करने वाली होने लगी थी। लेकिन बेटे की चाह के विपरीत, बेटी के जन्म ने मेरे मन में नैराश्य उत्पन्न कर दिया था। जिसके वशीभूत, शीतल के जाने से, आगे मुझे क्या विपरीत परिणाम भुगतने होंगे, उसकी कल्पना में नहीं कर पाया था।


फिर दिन व्यतीत होने लगे। दिन तो बाहर किसी प्रकार बीत जाता था। रात बिस्तर पर अकेला होता था। कुछ दिन और बीते तो यह अकेलापन मुझे अखरने लगा, शीतल, याद आने लगी, अक्सर नन्ही दीप का मासूम चेहरा और उसे गोदी में लेने का अनूठा आनंद याद आ जाता था।मेरी आशा के विपरीत, मेरे ससुराल से कोई नहीं आया था। जबकि मुझे अनुमान था, वे लोग मनाने आएंगे। एवज में हम खर्चों की दिक्कत के बहाने, ठोस रकम ले कर शीतल को वापिस बुला लेंगे।

मेरे अनुमान से बिलकुल विपरीत जो हुआ, उसने मुझे सकते में डाल दिया।शीतल के घर छोड़ने के लगभग एक महीने बाद, स्पीड पोस्ट से मुझे वकील के माध्यम से, भेजा नोटिस मिला, जिसमें परस्पर सहमति से विवाह विच्छेद के लिए, मेरे हस्ताक्षर अपेक्षित थे। नोटिस को पढ़कर, मेरे खुद ही सिर धुन लेने की इच्छा बलवती हुई। मम्मी, पापा ने सब ठीक कर लेने का आश्वासन दिलाया मगर मैं आश्वस्त नहीं हो सका। दो दिनों, मैं पागल सा रहा।

आज, मानसिक तनाव मिटाने के लिए, मेरे फ्रेंड के कहने पर, मैं रात जिनालय गया। वहाँ हो रहे पंडित जी के प्रवचन में 1 घंटे बैठ सुनता समझता रहा। फिर घर आया हूँ।

आज बिस्तर पर मेरा मन शाँत है। शाँत चित्त में विवेक के सहारे विचार कर पा रहा हूँ।मैं अनुभव कर पा रहा हूँ, हमारी नश्वर देह में, मेरे या शीतल के साधारण रूप का होना महत्वहीन है।  मुझे स्पष्ट हो रहा है, कषाय रखते किसी के साथ बुरा व्यवहार करने से, जीवन में मिल सकने वाले मित्रवत साथ से, मुझे स्वयं वंचित होना है। मै रियलाइज कर पा रहा हूँ कि शीतल नेकदिल है, अन्यथा उसका भेजा गया नोटिस 498 (ए) के प्रावधानों का उल्लेख करते आया हो सकता था। 

मैं कल्पना कर पा रहा हूँ कि मेरी नन्हीं बेटी दीप, पापा की छत्रछाया से वंचित होकर शायद, उतनी अच्छी न बन सके, जितनी कोई बेटी पापा के अच्छे लालन-पालन और सँस्कार से बन सकती हैं। मैं समझ सकने में समर्थ हुआ कि अपनी संकीर्ण सोच से मैं, शीतल का भाइयों या अन्य रिलेटिव से मधुर व्यवहार को देख चिढ़ता रहा हूँ। जबकि अगर शीतल से विवाह विच्छेद उपरांत या तो मुझे कोई लड़की शादी करेगी नहीं, जो करेगी वह भी डिवोर्सी ही होगी। जिसका पूर्व पति से संबंधों का इतिहास रहा होगा।

मुझे लगा समझदारी यह नहीं कि अतीत के संदेह से वर्तमान को ख़राब किया जाये, अपितु समझदारी इसमें है कि आगे के लिए पति-पत्नी परस्पर परायण रहें और भी न जाने क्या क्या विचार, मेरे मन में आते रहे हैं।अब, सोने के पूर्व मैंने यह निश्चय किया है कि मैं सुबह जिनालय दर्शन करने के उपरांत, ससुराल जाउँगा। वहाँ शीतल सहित सभी से क्षमा याचना कर, शीतल को कभी न परेशान करने का भरोसा दिलाकर, उसे वापिस अपने घर ले आऊँगा।  



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