मास आता श्रावण का घनघोर घटा उमड़ती है मास आता श्रावण का घनघोर घटा उमड़ती है
तुम हर रोज़ किसी न किसी बहाने... नाराज़ हो चले जाते...बालकनी में तुम हर रोज़ किसी न किसी बहाने... नाराज़ हो चले जाते...बालकनी में
कहता है "आज़ाद" हुई मन में अकुलाहट। प्रकृति भई निहाल, मिली बसंत की आहट।। कहता है "आज़ाद" हुई मन में अकुलाहट। प्रकृति भई निहाल, मिली बसंत की आहट।।
देख मुझे बूढ़ी दीवारें हो जाती हैं दंग। राख दौड़ कर पुरखों की भी लग जाती है अंग। देख मुझे बूढ़ी दीवारें हो जाती हैं दंग। राख दौड़ कर पुरखों की भी लग जात...
पुरुष हूं रोना शोभा मुझे देता ही नहीं। सोचकर दर्द को तुम क्यों पीये जाते हो।। पुरुष हूं रोना शोभा मुझे देता ही नहीं। सोचकर दर्द को तुम क्यों पीये जाते हो।।