यह पतझड़ मुझे अब बहार लगती है
यह पतझड़ मुझे अब बहार लगती है
यह
पतझड़
मुझे अब बहार
लगती है
पतझड़ के सूखे पत्ते
दगा नहीं देते
अपने दर्द की हकीकत
बयां करते हैं
बहारें
झूम कर आती
मन के आंगन को
महकाती हैं
मुस्कुराना सिखाती हैं
गम को कैसे छिपाना है
बताती हैं
फिर एक दिन
अचानक
रूठ जाती हैं
खिले हुए सारे फूल
एक एक करके
मुर्झाते जाते हैं
सूखकर
टूटकर
पेड़ की डालों से
अरमानों के बिखरते सपनों से
जमीन पर
बिखरते जाते हैं
उम्र भर साथ निभाने का जो
किया था इन्होंने वादा
लोगों से
उसे निभाना तो दूर
यह तो अपने ही वजूद से
किया वादा न निभाकर
उसका दिल तोड़
उसे मायूस किए जाते हैं।