वसुधैव कुटुम्बकम !
वसुधैव कुटुम्बकम !
सुनो दीप !
कुछ उजाला उनको भी देना
जो तुझे बनाते हैं,
खुद को मिट्टी की तरह गला कर,
कुछ रोशन उनको भी करना
जो गगनचुम्बी इमारतें बनाते हैं।
पर जिनके भाग्य में नहीं अपनी छत,
कुछ जगमग वहां भी करना
जहां सब कुछ होते हुए भी
कुल-दीप ना जल पाया,
कुछ प्रकाश उस गरीब को भी देना
जिसकी चुल्हे की बुझती आग
गढियाते पेट की आग को सुलगा गई !
कुछ चमक वहां भी करना
जहां गरीब,
लाचार-अनाथ बच्चे
अपने हिस्से का आसमां तलाश रहे हैं,
तमाम विपरीत स्थितियों के बावजूद
पूरी शिद्दत से
वसुधैव कुटुम्बकम की तान तरास रहे हैं,
बिना किसी शिकवा-शिकायत के।
सुनो दीप !
कुछ उजाला अपने नीचे भी करना
शायद यह सूरत बदल जाये
और मैं भी कह सकूं-
शुभ दिवस !
वसुधैव कुटुम्बकम !!