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Bharat Bhushan Pathak

Others

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Bharat Bhushan Pathak

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वो न आई

वो न आई

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वो न आई

तकता रहा मैं अपलक अम्बर।

सहस्त्र रश्मियों की कान्ति दिवालोक में पड़ चुकी धूमिल।

विछोह की वेदना से हृदय था व्यथित ।

क्या वो आएगी? शायद आ जाए! ऐसी थी आशा

न जाने क्यों मुझको प्रतीत हो रही थी निराशा ।

फिर भी मन में लिया आस तकता रहा आकाश ।

शायद वो आए! मेरे मन के बुझे दीप जलाए।

भयमिश्रित हृदय कर रहा था अबतक यह प्रश्न।

क्या वो आएगी?शायद आ जाए।

सुबह की बेला थी होने को शाम में परिणत।

प्रतीत हो रहा था मानो वो भी हो मेरे संताप में रत।

कोलाहल से दूर मन अब भी तकता था राह।

थी जिसमें पुष्पित- पल्लवित प्रेम अथाह ।

शायद वो आए!फिर भी .....वो न आई।

मन में लिए जिज्ञासा आशा के दीप जलाए।

सहस्त्रों बार बूझे मन की बत्ती को सुलगाए।

 यही सोच रहा था मन, शायद वो आए।

शायद आ जाए ! फिर भी वो न आई....।

सोचने को था मजबूर यह कैसी व्यथा है।

क्या प्रेम मेरा उसके लिए मिथ्या है।

पर मन का हिरण कुलाँचे भरता जा रहा था।

शायद वो आए!शायद आ जाए!

पर हाय विधाता वो न आई! फिर भी वो न आई!

था प्रश्न अबतक यह क्या वो आएगी।

शायद वो आए...

 शायद आ जाए...

  पर फिर.भी .


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