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कीर्ति जायसवाल

Others

4.3  

कीर्ति जायसवाल

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विद्रोह

विद्रोह

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ले चलो ऐ ‘अश्व’ मुझको उस धरा के छोर,

पाप रहित क्षेत्र हो; तम न हो; हो भोर।


भ्रमण करता ‘क्षेत्र’ में; गर्दभ-मति लिए हुए,

पशु, प्रेत बन भटक रहा अज्ञात; शून्य से परे।


देखता हूँ ‘मन की हलचल’ लोचन का प्रकाश ले,

कह न ‘बधिर’; सुन सका न गूँज अन्तर्रात्मा की।


था विचार चल पडूँ ‘सत्य मार्ग ओर’;

है ‘परिश्रम’; चल पड़ा मैं ‘तम मार्ग ओर’,


तम में आकर सब ही ‘गुह्यतम’; खुल सका न ‘भेद’

खुद को खोया; अश्व खोया; छूट गई थी डोर।


तम में खा-खा स्पंद; ‘नव-ज्योति’ में आया;

‘नव-ज्योति’ में आया और अश्व को पाया।


बोला उससे- ‘अश्व मुझको! ले चल नगर ओर’;

‘नगर’ में आया; ‘चित्र’ विचित्र ही पाया।


मानव ‘मशीन’ ! या…’ मशीन’ मानव’ !.. रहस्य ही रहा।

बम ‘मनुज ! या मनुज ‘बम’ ! कुछ समझ न यह सका।


भू,वात, शून्य ‘उच्छ्वास’ हैं भरतें;

‘विज्ञान’ का तूने ‘प्राचीर’ बनाया;


तोड़ दे प्राचीर को वो श्वांस भरेंगे,

त्यज मोह; राह ये छोड़; ‘ध्वंस’ करेंगे।


ले चलो ऐ अश्व मुझको ‘वन-हरित’ उस ओर,

‘विपिन’ में आया; मन ‘शांति’ को पाया;


‘विहग-कलरव’ छोर-छोर ‘गूँज’ है मचती,

बिल्लियों को बिल्लियाँ ही नोंचती रहतीं।


‘सर्प’ जैसे ‘शशक’ का अनुसरण करता;

‘शशक’ गर्दन मोड़ फिर-फिर दौड़ता रहता,


वृक्ष से जा भिड़ा; फँस गया ‘झाड़ियों’ में;

कंटकों में पैर थें; शिकार बन गया।


‘सर्प’ तो यहां भी हैं; ‘गेंडुरी मारे हुए,

लगता करते ‘अनुसरण’; ‘शिकार’ करेंगे।


‘सर्प’ अतिथि बनकर आतें; हैं ‘अतिथि-सत्कार’ करवातें,

बनकर ‘स्वजन’; डसकर ‘स्वजन’ राज करेंगे।


ले चलो ऐ अश्व ! मुझको उन युगों की ओर,

जहाँ ‘श्री रामचंद्र’ और थे ‘माखन चोर’।


‘त्रेतायुग’ में शांति है; पशुओं में मित्रता है,

‘अनुज’ यहाँ ‘अग्रज’ का विरोध है करता


क्योंकि वह ‘असत्य संगी’; ‘सिया’ का हरण किया,

खो दिया ‘भ्राता’ उसने; असत्य खो दिया;


भेद कह दिया, सत्य विजय हो गया,

विजयदशमी पर्व रूप याद बन गया।


युध्द ‘कुरुक्षेत्र’ में; जन ने संहार किया,

जन ने ‘स्वजन’ पर ही ‘वार’ है किया;


युध्द में पितामह हैं; भ्राता,चाचा,पुत्र हैं;

‘शर’ से स्वजन पर प्रहार है किया;


क्योंकि वे ‘असत्य संगी’; सत्य से विद्रोह जो,

खो कर ‘स्वजन’ को है ‘सत्य’ संग रहा।


'कौणप' कलयुग के ऊँचे हैं आसन पर,

‘भ्रष्टाचारी’ कलयुग का शैतान है बना;


‘दीन’ का रक्त चूसे; रक्त में वृद्धि करता,

‘कंगाल’ करके ‘कंकाल’ कर दिया;


कृष्ण! हे राम ! तू कलयुग में ओझल

नारायण जी ! फिर से अवतार ले लो।


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