विभावरी
विभावरी
विभावरी तू अंतस विभोर कर गयी
संग लिए चन्द्रिका गगन में उतर गई
निस्तब्दता चीर निशा थी झलक रही
नयन नीर तुहिन बूंद सी ढुलक रही
राका और राकापति सदियों से संग थे
आंगन खुशियों के नित,बजते मृदंग थे
पर आज कुछ अनमनी सी बात थी
तारों भरी वह कुछ ज्यादा सर्द रात थी
निशीथ व्योम विचरते निशापति को
निहार एक तारिका निढाल कर गयी
अनंत भी उसे निर्निमेष निहारता रहा
हाले ए -दिल नैनन सों बयां कर रहा
वितान तान निशा बेफिक्र हो पसर गयी
विछुड़ती बदली, विधू को अखर गयी
कड़क कर दामिनी घटा को जगा गयी
जाने क्यों वफ़ा चांद की, उसे दगा दे गई
देखने तमाशा बयार भी निकल पड़ी
पैर उचका झरोखे पर हो गयी खड़ी
दूर से ही दादुर, उसे सचेत कर गया
निश्चिंत हो खुद तडाग में उतर गया
खद्योत लघु लालटेन हाथ में लिए
तलाशने यामिनी संग संग चल दिए
अरुण रथ लिए क्षितिज पर थे खड़े
मुदित दिनकर प्राची पर निकल पड़े।