वह परिवार
वह परिवार
वो परिवार में अब बात कहांँ...
सूना सा एकल पूरा था संयुक्त जहांँ..
वह छड़ी दादी की खाट से लगी रहती थी..
ऐनक के ऊपर से घूरा सबको करती थी..
मांँ चाची आवाज से उनकी थरथर डरती थी..
भोर की किरण से पहले घर में चहल-पहल हो जाती थी..
भोजन बनते ही बड़े बच्चे सब की पांत लग जाती थी..
दानों के लिए कौवे मुंडेर पर काँव करते थे...
बंँधे द्वार पर बैल गाय हो प्रसन्न सेवा से..
बौछार बारंबार आशीष की दिल से करते थे..
क्यारी की कलियांँ खिलखिलाहटों से खिलती थी...
गौरैया भी पीकर कटोरे का पानी फड़फड़ाहट संग उड़ान भरती थी..
आने जाने वाले राम-राम करके अभिवादन करते थे..
इस तरह ईष्ट का अपने ध्यान स्वत: ही मुख करते थे..
आज एकाकी परिवार सूना और अकेला है.....
सबसे अबूझा आफतों का स्वयं झमेला है..
किसी को किसी की रत्ती भर ख़बर नहीं..
रिश्तो की कोई चवन्नी भर क़दर नहीं..
जो बड़े बूढ़े होते थे घर की आन बान..
आज हैं वो अकेले तन्हा वृद्धाश्रम की शान..
ना ही दिल में भाव ना ही कोई पल इमोशनल है...
सब कुछ सारे रिश्ते अब मोबाइल पर डिजिटल हैं.