उम्मीदों के सपने
उम्मीदों के सपने
हताश है हमको पाकर वो लम्हा
तलाशते थे जिसे सोच इतना भला था,
लाख कॉंटे सही पर मंजिल से बेहतर
सफर ही जिन्दगी है यकीं हो चला था.
वास्ता न किसी का कोई उल्फत से अपनी
टूटे हैं कई बार उम्मीदों के सपने,
मैं करता रहा परछाईयों का पीछा
जबकि साया भी नहीं था कभी साथ अपने.
भटकता रहा चाहत में सफर भर
मरू में मृगा बिन पानी के जैसे,
थमते गऐ थे कदम हर कदम पर
फिर मिलती कभी क्या मंजिल मुझे ऐसे.
रोक दी थी जमीं आसमॉं भी झुका कर
कभी तो लगा आगे निकल सा गया हूँ,
कभी सोचता रह गया था जड़वत
कि जमाने से पीछे मैं क्यूँ रह गया हूँ.
ठोकरों की बिसात तन्हाई के घुंधलके
पगडंडियों का मेला अजब जिंदगानी,
डाल बोझिल से कदमों को कंधे पे अपने
ढूँढ रहा हूँ मैं कब से इक मंजिल अनजानी.
निशॉं जो कई थे ऑंधियॉं ले गईं
कईयों को अंधेरों ने न पढ़ने दिया,
बेसब्र वहम को दिखी हर तरफ
पर मंजिल की तरफ न बढ़ने दिया.
न लगाना उम्मीदें किसी से कभी भी
कह रहा था जमाना न जाने ये कबसे,
हमदर्द मिलेगा न कोई भी यहॉं पर
सच ही तो है अब मैं कहता हूँ सबसे.
रोक पाता नहीं फिर भी कदमों को अपने
टूटते हैं हरदम पर बुनता हूँ सपने.