उमा न जा सकी न ठहर सकी
उमा न जा सकी न ठहर सकी
अनेक व्रतों द्वारा पार्वती ने
कोमल शरीर तप से सुखा दिया ,
तो एक दिन उसके तपोवन में एक
जटाधारी तपस्वी आया।
अतिथि सत्कार में कुशल पार्वती ने
आगे बढ़कर उसका सत्कार किया।
वह मृगछाला पहने हुए था,
उसके हाथ में दंड था, उसने कहा
शरीर ही धर्म का साधन है
तुम किसलिये तप करती हो?
तुम्हारे निष्कलंक आचरण से
यह हिमालय पवित्र हो गया है।
पार्वती अपना मनोरथ स्वयं न बता सकी
पास बैठी उसकी सखी ने बताया
यह मानिनी महादेव को
पति रूप में प्राप्त करना चाहती है।
कामदेव के नष्ट हो जाने से
सौंदर्य द्वारा शिव को मुग्ध नहीं किया जा सकता।
जटिल ब्रह्मचारी ने कहा
महादेव के हाथ पर कंकण के स्थान पर
सर्प लिपटे हुए हैं, हाथी की खाल पहनते हैं,
शिव के साथ बूढ़े बैल पर चढ़ना होगा।
महादेव दिगम्बर हैं, धन सम्पत्ति नहीं है
उनके कुल का कुछ पता नहीं।
शिव के विरुद्ध बातें सुनकर
पार्वती क्रोध से काँपने लगीं और कहा
विवाद मत करो, मेरा मन उन्हीं में रमा है।
प्रेम दोषों को नहीं देखता, तुम चुप हो जाओ
या मैं ही यहां से चली जाती हूँ,
जो निन्दा सुनता है उसे भी पाप लगता है।
यह कहकर पार्वती चल पड़ी,
तभी महादेव ने वास्तविक रूप धारण किया,
मुस्कुराते हुए पार्वती का हाथ पकड़ लिया।
महादेव को देख पार्वती का शरीर कांपने लगा,
चलने के लिये एक पैर उठाये हुए थीं
न तो चल ही सकी, न खड़ी ही रह सकी।
महादेव ने कहा मैं तुम्हारा दास हूँ,
तुमने अपनी तपस्या से मुझे ख़रीद सा लिया है।
यह सुनते ही पार्वती का कष्ट जाता रहा,
अभीष्ट फल प्राप्ति से नई ताजगी आ गई।
पार्वती ने सखी से महादेव को कहलवाया
उसके पिता पर्वतराज से उसे मॉंग लें।