तुम ही बताओ !
तुम ही बताओ !
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मैं तुम्हारे दर्द पर
कविता लिखूंगा तो
क्या कवि हो जाऊँगा?
तुम्हारे उसी दर्द की टीस
पर गर मर्सिये गाऊंगा तो
क्या चर्चा में आ जाऊंगा?
तुम्हारे दर्द के लिए
किसी से दो-दो हाथ होने
की जगह गर सिर्फ कागज़
को काला करता रहूँगा,
तो क्या योद्धा होने के
गुमान को अपने जहन
में पाल सकूंगा?
तुम्हारी दर्द में छुपी हुई
एक हंसी को गर मैं तलाश
भी लूंगा तो क्या मैं चैन
को पा सकूँग?
तुम ही बताओ ना
क्या मैं ऐसा कर के
अपने जमीर को जिंदा
रख पाऊंगा?