ठिकाना
ठिकाना
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रूठकर तुमसे कहाँ
मुझे ठिकाना है
दोनों तरफ खाई
हर तरफ ज़माना है
आइनों से बचकर
अब तक रहे है हम यहां
अब आइनों के शहर में
हमें घुसकर जाना है
बदगुमानी देखिये वक़्त की साहिब!
जो राह भूले है खुद अपनी
उन्ही की रहगुज़र अब
हमें चुप-चुपके जाना है
तुम भी तन्हा हम भी तन्हा
किस बात का शिक़वा करें
एक अकेले हम नही साहिब!
तन्हा तो यह ज़माना है
दिल की बात ज़ुबाँ पर
जाने कब आ जायेगी
मेरी अधूरी हसरतें
जाने कब क़रार पा जाएगी
न तुम इससे वाकिफ़ हो
न मैं ही मुझे कुछ इसकी ख़बर
फिर कुछ गौर कीजिए
सबको इसी रहगुज़र में
अपना हिसाब चुकाना है.....
