तमाम उम्र
तमाम उम्र
पड़ी जब कभी आईने में नजर,उसको खुद में निहारते रहे।
भूल गए चलन-ए- दुनिया! तमाम उम्र भ्रमों में गुजारते रहे।।
खोये रहे कोरी कल्पनाओं में इतना वक्त रेत -सा फिसलता रहा।
फकत् रेत पर तन्हा ,मन के महल बनाते बिगाड़ते रहे।।
कूद गए एतबार-ए-समन्दर में, सुकून-ए-दिल की तलाश में।
सुकूं मिला नहीं,फिर सारा उम्र बेचैनियों से किनारे तलाशते रहे।।
मिला ना किसी का मुतमईन सहारा जहां में हमको।
हर बार गिर कर खुद से ही खुद को उबारते रहे।।
हैं मजबूर "मंजुल" खुद की आदत-ए-एतबार से इतना।
एतबार पर एतबार कर ,हर बार अपनों से ही हारते रहे।।