स्वरांजलि
स्वरांजलि
कौन सी विरह पर बांँसुरी का राग छेड़ा है....
सीता को राम ने छोड़ा है ....
या सांँवरे ने राधिका से मुंँह मोड़ा है....
बिन उसके हर तराना फ़ीका है......
उसका गूंँजना जैसे नर्तकी चिलमन साज़ सरीखा है..
दे रहा निमंत्रण स्पर्श का उसके....
होठ उंँगलियों का हो कायल सी...
बिन उसके सुरूर ना चढ़ेगा.. प्रेम में राधा की पायल सी...
त्यागे सब सूने हैं ..मौन मुखर मुख बांँधे हैं...
राम के स्वर तीर तरकश में सकल सांँची प्रीत सांँचे हैं..
..और उस वंशी की स्वर लहरी पर..
मीरा,, शबरी भीग प्रेम में इक पाँव पर नाचे हैं..
बरसा उसकी दो बूंँदों में.. कैसा यह पाक सैलाब..
रूके ना पाँव ,,झूमे आत्मा ,,रुहानी रुह होती नायाब...
