स्वच्छंद हूँ मैं
स्वच्छंद हूँ मैं
स्वच्छंद नभ में बिन रुके,
मैं उड़ चली हूँ दूर तक,
अठखेलियाँ करती गगन में,
क्षितिज के उस छोर तक।
डर नहीं कोई रोक लेगा,
हौसलों को तोड़ देगा,
खींच कर कोई डोर मेरी,
ला धरा पर छोड़ देगा।
आज उड़ने के लिए,
ना सहारे की मोहताज़ हूँ,
पवन की साथी बनी मैं,
गगन की हमराज़ हूँ।
बादलों के पार सूरज से,
जरा मिल आऊंगी,
कौन अब रोके मुझे,
ऊंचे ही उड़ती जाऊँगी।
खग - विहग के साथ मैं,
अम्बर में गोते ले रही,
बिन डरे और बिन रुके,
मैं उड़ रही बस उड़ रही।
आज मदमस्त हूँ मैं मनचली हूँ,
स्वप्न कोई अंतरंग हूँ,
सब बंधनों से आज़ाद हूँ,
मैं स्वतन्त्र हूँ, स्वच्छंद हूँ।।
