सुकून ढूँढती चाय
सुकून ढूँढती चाय
सुबह की चाय के मायने बदल गए है चाय अकेली पड़ गई है,
कितनी सारी चीज़ें छोड़ गई चाय का साथ।
सुबह ने रफ़्तार पकड़ ली है
अलार्म की घंटी बजते ही इंसान भागता है
दिन रथ के घोड़े तैयार होते हैं
गृहिणी से लेकर ढ़ाई साल के बच्चे तक सब दौड़ते हैं।
कहाँ वो सुकून सभर सुबह की आह्लादित फ़्रेश फ़्रेश सोच...
खिलखिलाती रश्मियाँ खिड़की से झाँकती जगाती थीं।
अब पोल्यूशन की परतों के बादल छाए हैं,
बाल्कनी में झूले पर बैठे टी टेबल पर रखे टी पोट में से
घूँट घूँट की लज्जत लेते परिवार के हर मुद्दों की
चर्चा और समाधान के साथ अखबार की सुर्खियाँ देखते
दिन की शुरुआत होती थी।
गर्मा गर्म आलू के पराठों की जगह ब्रेड बटर ने ले ली है
चाय इसीलिए तो रोती है,
अब लोग फ़स्ट्रेशन में चाय पर चाय उड़ाते है,
हम सबके वक्त ने अब रफ़तार पकड़ ली है
ज़िंदगी की आपाधापी ने इंसान से सुकून छिन लिया है,
अखबार को छूते ही पोरें जल जाएं ऐसी सनसनीखेज खबरें
पढ़ कर आहत होते मन से दिन की शुरुआत ही दहला देने वाली होती है।
समाज में फैली गंदगी की बू अखबारों से आती
सीधी उतर जाती है मन के भीतर चाय की रंगत को रौंदती।
ना टीवी कोई खुशियों की सौगात देता है
सोफ़े पर टांग पर टांग चढ़ा कर बैठकर चाय का मग हाथ में लिए
जो रामायण महाभारत के मजे लेते थे
आज वहाँ सियासती दंगल ने अपना डेरा ड़ाल रखा है।
ना परिवार के सदस्यों के पास धीरज या समय है
जो शांत मन से अपनेपन से फुर्सत के चार पल
एक दूसरे के हालचाल पूछने में बिताए,
सबकी अपनी ज़िंदगी है कुछ पाने की चाह में चिड़चिड़े से जूझते रहते हैं।
घर के बुजुर्ग अपनी 6/8 की खोली में ठंडी ठिठुरती चाय की प्याली संग
उस ज़माने को मन ही मन दोहराते पड़े रहते हैं
उस आस में कि काश! कोई पास बैठकर पूछे दो पल मेरे साथ भी बिताए।
अब चाय ढूँढ रही है अपना वजूद अपने मायने
इंसानो की दौड़ में गोता खाते जो खो गया है।
अब जगह बदल गई है चाय की लारी पर बैठने वाले
मयख़ाने की चौखट पर जा बैठे हैं ,
हम खुद से ही अंजान होते चले जा रहे हैं
चाय को भूलकर व्हिस्की बियर में खोते जा रहे हैं।
