स्कूल का बस्ता
स्कूल का बस्ता
स्कूल का वो बस्ता था
जो मेरे ऊपर हंसता था
बस्ता था या झोला था
मां ने उसे बस्ता बोला था।
मांगी हुए बस चार किताब थी
जो मांगती रही मुझसे हिसाब भी
भारी तो नहीं थोड़ा हल्का था
कुछ फेंका नहीं जो कल का था।
एक चलित स्टोर भी था वो
एक रोटी साथ गुड़ रखता वो
बड़ों के लिए जो कबाड़ थी
वो खेल का एक जुगाड़ थी।
कागज के जहाज, कश्तियां
मोर के पंख, कुतरी टॉफियां
बस्ता फटे हाल सब झेलता था
पढ़ाई कम ज्यादा खेलता था।
वो बेचारा जीर्ण सा फटता गया
पर मैं उसको साथ ले चलता गया
तार तार हो कर उसने दम तोड़ा
बापू ने उसकी रस्सी बनाई मुझे दी
दूसरा साथ बनके फिर कुछ और जोड़ा।
उस बस्ते ने एक एक पल देखा
मेरा हंसता खेलता कल देखा
आज बस्ते बैग में बदल गए हैं
पर जाने क्यों अपने बच्चों के वो बैग देख
वो यादें तो आती है पर एहसास नहीं।
