शूद्रों में ब्राह्मण होता है
शूद्रों में ब्राह्मण होता है
मैं छुआछूत का त्याग करूँ, ऐसी मेरी अभिलाषा है ।
अब रामराज्य होगा जग में, इसकी भी पूरी आशा है ।
दो कदम चलो तुम यदि आगे, मैं चार कदम चल आऊँगा ।
तुमको भाई कहना भर क्या, भाई जैसा अपनाऊँगा ।
अपनी संस्कृति में पापी भी, सद्गति पाकर तर जाते हैं ।
कालिदास ग्रन्थों की रचना, चुटकी ही में कर जाते हैं ।
डाकू भी मन परिवर्तित कर, सहसा महर्षि बन जाते हैं ।
जन हित में कविवर बाल्मीकि, रामायण कथा सुनाते हैं ।
सबरी ने चाही मुक्ति उन्हें, श्री राम मुक्ति दे देते हैं ।
केवट को पुण्य अवस्था की, सुखधाम युक्ति दे देते हैं ।
कोई बहेलिया गलती से, शिवपूजन यदि कर जाता है ।
जीवन भर के दुष्कर्मों से, पल भर में ही तर जाता है ।
जाने कितने ही हैं प्रसंग, किस-किसका मैं उल्लेख करूँ ।
सबकी है सीख सहज इतनी, जिस-जिसका मैं उल्लेख करूं ।
मैं जूठे बेर चखूँगा तुम, सबरी सा प्यार जगाओ तो ।
मैं गले लगाऊंगा सहर्ष, तुम केवट बनकर आओ तो ।
तुम राक्षस कुल के होकर भी, यदि पुण्य हृदय से आओगे ।
तो राम विभीषण के समान, अपना भी नाता पाओगे ।
बस विषय यहाँ इतना सा है, तुम मुझे बदलना चाह रहे ।
सूरज की जगह जुगनुओं सा, तुम आज निकलना चाह रहे ।
तुम चाह रहे हो गले लगा, मैं भी तुम जैसा बन जाऊँ ।
अपनी सद्गति का मार्ग भूल, तुम सी दुर्गति को अपनाऊँ ।
यह धर्म-जाति का भेद नहीं, है भेद मात्र आचरणों का ।
भौतिक सुख की अभिलाषा में, असुरोचित कुछ व्याकरणों का ।
तुम निरपराध पशु भक्षक हो, फिर कैसे प्यार दिखाऊँ मैं..?
जो थाली रक्त सनी थी कल, उसमें कैसे खा जाऊँ मैं ?
जिन हाथों ने कल बेजुबान, पशुओं का रक्त बहाया था ।
फिर नोंच-नोंचकर लाशों को, गिद्धों के जैसे खाया था ।
उन हाथों को चूमूँ कैसे, कैसे उनको स्वीकार करूँ ।
है धर्म यहीं पापी का मैं, थोड़ा सा तो प्रतिकार करूँ ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय या सूद्र, वैश्य, ये जाति नहीं बस द्योतक हैं ।
ये कर्मों की परिभाषा हैं, बस आचरणों के सूचक हैं ।
कुल कोई हो यदि कर्म अलग, तो कुल का रूप बदलता है ।
सूद्रों में ब्राह्मण होता है, ब्राह्मण में सूद्र निकलता है ।