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Rahul Dwivedi 'Smit'

Others

5.0  

Rahul Dwivedi 'Smit'

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शूद्रों में ब्राह्मण होता है

शूद्रों में ब्राह्मण होता है

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मैं छुआछूत का त्याग करूँ, ऐसी मेरी अभिलाषा है ।

अब रामराज्य होगा जग में, इसकी भी पूरी आशा है ।


दो कदम चलो तुम यदि आगे, मैं चार कदम चल आऊँगा ।

तुमको भाई कहना भर क्या, भाई जैसा अपनाऊँगा ।


अपनी संस्कृति में पापी भी, सद्गति पाकर तर जाते हैं ।

कालिदास ग्रन्थों की रचना, चुटकी ही में कर जाते हैं ।


डाकू भी मन परिवर्तित कर, सहसा महर्षि बन जाते हैं ।

जन हित में कविवर बाल्मीकि, रामायण कथा सुनाते हैं ।


सबरी ने चाही मुक्ति उन्हें, श्री राम मुक्ति दे देते हैं ।

केवट को पुण्य अवस्था की, सुखधाम युक्ति दे देते हैं ।


कोई बहेलिया गलती से, शिवपूजन यदि कर जाता है ।

जीवन भर के दुष्कर्मों से, पल भर में ही तर जाता है ।


जाने कितने ही हैं प्रसंग, किस-किसका मैं उल्लेख करूँ ।

सबकी है सीख सहज इतनी, जिस-जिसका मैं उल्लेख करूं ।


मैं जूठे बेर चखूँगा तुम, सबरी सा प्यार जगाओ तो ।

मैं गले लगाऊंगा सहर्ष, तुम केवट बनकर आओ तो ।


तुम राक्षस कुल के होकर भी, यदि पुण्य हृदय से आओगे ।

तो राम विभीषण के समान, अपना भी नाता पाओगे ।


बस विषय यहाँ इतना सा है, तुम मुझे बदलना चाह रहे ।

सूरज की जगह जुगनुओं सा, तुम आज निकलना चाह रहे ।


तुम चाह रहे हो गले लगा, मैं भी तुम जैसा बन जाऊँ ।

अपनी सद्गति का मार्ग भूल, तुम सी दुर्गति को अपनाऊँ ।


यह धर्म-जाति का भेद नहीं, है भेद मात्र आचरणों का ।

भौतिक सुख की अभिलाषा में, असुरोचित कुछ व्याकरणों का ।


तुम निरपराध पशु भक्षक हो, फिर कैसे प्यार दिखाऊँ मैं..?

जो थाली रक्त सनी थी कल, उसमें कैसे खा जाऊँ मैं ?


जिन हाथों ने कल बेजुबान, पशुओं का रक्त बहाया था ।

फिर नोंच-नोंचकर लाशों को, गिद्धों के जैसे खाया था ।


उन हाथों को चूमूँ कैसे, कैसे उनको स्वीकार करूँ ।

है धर्म यहीं पापी का मैं, थोड़ा सा तो प्रतिकार करूँ ।


ब्राह्मण, क्षत्रिय या सूद्र, वैश्य, ये जाति नहीं बस द्योतक हैं ।

ये कर्मों की परिभाषा हैं, बस आचरणों के सूचक हैं ।


कुल कोई हो यदि कर्म अलग, तो कुल का रूप बदलता है ।

सूद्रों में ब्राह्मण होता है, ब्राह्मण में सूद्र निकलता है ।



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