श्राद्ध और पुण्य
श्राद्ध और पुण्य
जीवित जब थे वो खड़े
कभी न तुम उन्हें मान दिये,
दो वक्त की तो बात छोड़ो
कभी न रोटी कपड़ा मकान दिए।
व्यस्त अपनी जीवन में सब है
माँ बाप वृद्धाश्रम में पड़े है,
जिस उमर में जरुरत स्नेह की है
वो गैरों से प्रताड़ित हो रहे हैं।
आकांक्षाएं मन में भरी थी
पोते संग बुढ़ापा काटने की,
पर आश्रम में छोड़कर
फिर लाल ने न कभी हाल लिया।
हो गये अगर खत्म वहीं तो
धूमधाम से श्राद्ध होगी,
मोक्ष की लालसा में
तर्पण और दान होगी।
वेदों की पाठ होगी
नियमित कर्मकांड होगी,
पर पुण्य क्या उसे मिल सकेगा
माँ बाप की लाठी जो न बन सका।