शिक्षक
शिक्षक
आदरणीय!
किन्तु कैसे रुचेगा तुम्हें
यह संबोधन
क्योंकि भीतर कहीं
भान तो होगा
कि कुचल दिया है मैंने
अपना आदर खुद ही
अपने ही संकीर्ण
स्वार्थों के हथौड़े से
चलो कहता हूँ कुछ और
प्रिय शिक्षक!
क्या !!ये भी तुम्हें
रास ना आया
जानते हो तुम
प्रिय होने के लिये पहले
होना होता है
सहज, सरल, निश्छल
बौने होते हैं आत्मा में
स्नेह के अंकुर
तभी कुसुमित होता है
प्रेम का उपवन
तो क्या कहूँ तुम्हें
मात्र
शिक्षक!!
शिक्षक वही कहाता है ना
जो देता है ज्ञान
और ज्ञान देने के लिये
होनी होती है
सिर्फ आँखे ही नहीं दृष्टि भी
दृष्टि, जो निरपेक्ष हो
और हो पारदर्शी
ज्ञान देने के लिए
मुख में शब्द भी होने होते हैं
शब्द, जो न्याय से पगे हों
जिनमें शक्ति हो सत्य की
और ज्ञान देने के लिए
चाहिए कर्ण भी, ऐसे,
जो वहन कर सकें
सत्य की गूँज को
सुन सके जीत के स्वर
सभी के, द्वेष ना हो तनिक
किन्तु तुम तो
कौरव निर्माता धृतराष्ट्र हो
या गांधारी की बंधी
काली पट्टी हो
और मूक हो तुम
नीति अनीति क्या बतलाओगे
जड़ हो गयी है वाणी तुम्हारी
किस भय या आतंक से
तुम क्या राह दिखलाओगे
आवरण रोकता है तुम्हें
किसी के उन्मुक्त हास का स्वर
प्रकृति का निर्मल आह्लाद
कैसे सुन पाओगे तुम
सोचता हूँ तुम्हे मित्र कहूँ
पर ये क्या तुम तो
स्वयं के भी शत्रु बन गए हो
तुम क्या मित्रता निभाओगे
अब भी समय है चेत जाओ
स्व के अभिमान को जगाओ
जो मृत पड़ी है भीतर कहीं
उस आत्मा को सहलाओ
अन्यथा
ऐसा ना हो किसी दिन
कि तुम्हारे ये संबोधन
तुम्हारा उपहास उड़ाएं
यह आदर्श स्वरूप तुम्हारा
मिट्टी में मिल जाये
ऐसा यदि हुआ तो सोचो
तुम अपने हंता बन जाओगे
सत्य मानना उस दिन तुम
बहुत अधिक पछताओगे
