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Kavi Amit Kumar

Others

5.0  

Kavi Amit Kumar

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शातिर

शातिर

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बेहोशी में दर्द की गहराई का पता कहाँ चलता है

वो मुस्कुराता है मगर भीतर ही भीतर तड़पता है

उसे पता है कि तड़प है वो रोता है वो कलपता है


मगर है इतना शातिर कि दिन के उजाले में खूब हँसता है

मैंने सोचा कि उसकी दवा बनूं थोड़ा दिन में उसे रुलाऊँ

पर वो कहाँ मानने वाला है वो तो दिन का हँसने वाला है


ना जाने वो कैसे उस दर्द को छुपाता है

वो गिड़गिड़ा के भी ठंडा क्यों पड़ जाता है

उसकी आँखें सच्चाई बताने से इनकार करती रही

तब तक जब तक मेरी आँखों पर यकीन ना हुआ


वो आँखें ऐसी थी जैसे कोई दो मुहे साँप के फन

जिसको अपना ही जहर गला रहा हो

अब मुझसे रहा नहीं जाता मैं कोशिश करता हूँ उसे

उस तथ्य से परिचय कराने में जहाँ ज़हर का असर

खत्म हो जाता है


मगर ये इंसान कहाँ मानता है, वो दर्द मेरा हृदय जानता है

वो दिल में उठती टीस और मिलावटी मस्तिष्क

और इनके बीच का तनाव जहां एक एक धागा टूट रहा है

लेकिन वो ऐसा की हर टूटे हुए धागे के बाद अगले कमजोर

धागे से दोगुनी उम्मीद लगाता है


और फिर तार तार टूटता हुआ पाता है

लेकिन वो इंसान इतना शातिर आसानी से कहाँ मानता है।


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