पुकार
पुकार

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क्या सुनी किसी ने उनकी करूण पुकार
क्या तुमने?
फिर सुनाई देगी आज एक मां की चीत्कार
क्या इंसान खुद भी नहीं अपनी हरकतों से शर्मसार
आखिर क्यों छीन लिया उसने एक जीने का अधिकार।
वक़्त ने बना दिया ये कैसा हैवान
आज तो भगवान भी होगा इनसे परेशान,
उन मासूमों की गलती क्या थी?
जिन्हें उड़ना था गगन में बन आजाद परिंदे
उनपे ही नजर गड़ाए ये भूखे दरिंदे।
आज यहां सुरक्षित कौन है?
जब आंगन में गूंजती किलकारियां मौन है
क्यों नहीं हमारा खून खौलता?
क्यों नहीं खुल के कोई कुछ बोलता।
कहीं ना कहीं समाज दोषी है
अपनी कमजोरियों का स्वयंपोसी है
अगर उसने समझा होता सबको एक समान
तो नहीं होते ऐसे कृत्य तमाम।