परछाईं
परछाईं
मैं खुद को गले लगाकर
वर्षों से समझाती चल रही हूँ
पर,
बहुत अपमान लगता है
जब अपमानित करनेवाला
सोचे कि अब मुझे सेवा करने
के लिए लौट आना चाहिए !
समाज बदल गया है
सोच बदल गई है ...
लेकिन, सिर्फ अपने लिए !
दूसरों के दर्द में कहते हैं
चलिए, अब भूल भी जाइये
और
बार बार रिवाइंड ,
प्ले होती अपनी
ज़िंदगी को देखकर
सोचती हूँ
क्या क्या भूल जाऊँ ?
और क्यूँ ?
तथाकथित शुभचिंतक
बना समाज
बहुत ही हास्यास्पद
पोशाक में होता है
खुद को सूरमा समझता है
और जिसकी ज़िन्दगी
तलवार की धार पर चली हो
उसे शिष्य बना देता है !
हँसती हूँ इस सोच पर
पर अंदर कुछ ऐंठता है
लगता है,
बीमार हूँ
बहुत बीमार
पैसे ने मेरी आत्मा को
बहुत रुलाया है
प्यार को पूजा मानते हुए
डर डर के चली हूँ !
हर दिन,
हर पल को
श
ब्दों में नहीं
बांधा जा सकता
और ...
कोई क्यूँ रुककर सुनेगा !
मुझे उम्मीद भी नहीं रहती,
सबके अपने अपने दुख हैं
पर,
सूक्तियाँ बड़ी नुकीली होती हैं
रोज चुभती हैं ...
फिर रोज खुद को गले लगाती हूँ
जो मिला है
उसका मरहम लगाती हूँ
सपनों की लोरी सुनाकर
एक नींद की गोली देकर
सुला देती हूँ
अतीत परछाईं सी गुजरती है
अचानक झटके से नींद खुलती है
और होने लगती है बात
हुआ क्या है ?!
डॉ को दिखाना चाहिए !
हाँ "कहकर सोचने लगती हूँ
खामखाह जो पैसे हैं
उसे टेस्ट करवाने में लगा दो
चलता रहेगा यह तमाशा
जब तक अतीत है
पर उपदेशक समाज है
वर्तमान का
बीपी बढ़ेगा,
घटेगा
सांसें थमने लगे
मीठा खा लो
तो शुगर बढ़ जाएगा
और मिलेंगी नसीहतें
खान पान पर ध्यान दीजिए
बात इतनी है
कि मन चंगा तो
कठौती में गंगा !