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पीढ़ा और वसंत आगमन्

पीढ़ा और वसंत आगमन्

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उफ! अन्धड़ का यह विचित्र हुड्दंग है

ॠतु बसंत का यह अन्धड़, प्रचंड है? 

वृक्ष-लाता-गुल्म के शुष्क-विदीर्ण पत्ते

मन उल्लासित होता नहीं, किंवा प्रिये

भरी-भरी भूमि की प्रशस्त छाती,

आछन्न पात से ढका अंग-प्रत्यंग है

हे प्राण-प्रिये!

यह कैसा शुष्क-काल,

विरह का विकट सम्बन्ध है?

चहु-दिशि धरा-गगन उदासीन,

भींगा-भींगा नयनों का पोर,

चित्त अत्यंत असंतुष्ट-विदीर्ण है!

मन तेरा भी निश्चय हीं, अत्यधिक विछिन्न है

कैसा ये दुःख का काल-जनित दुस्तर संग है?

आशावान तुम लगते हो शायद!!

मंजर-कोपल का स्फुरण प्रचंड है

काल-संधि का यह दुस्तर सीमांकन,

प्रकृति अति व्यघ्र, अति- व्यस्त है

त्याग करूँ तो फल-पुष्प पाऊँगा

हृदय कमल को कर आविष्ट,

ताल से तलइया सबको मिलाऊँगा

नव हरीतिमा के दृश्य से मन सबके हरसाऊँगा

तुम्हें अमर-लाता बना,

तन से चिपकाऊँगा

पर, तत्कालीन पीड़ा को सहज,

क्या मैं भूल पाऊँगा?

दुर्लभ काल कैसे मैं व्यतीत कर पाऊँगा?

काल-चक्र से और उलझ पीड़ा क्यों गहराऊँगा??

शुष्कता से अति-शीघ्र त्राण,

तुझे उपलब्ध कराउँगा

हरीतिमा की झांकी से आच्छादित,

सुवासित उद्यान का मद-मत्त भँवरा बन,

तेरा मन हर पल बहलाऊँगा

मैं तुम्हें और क्रंदन दे, नहीं विलखाऊँगा

वृष्टिकाल आने वाला है, आप्लावित कर जाऊँगा



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