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Surendra kumar singh

Others

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Surendra kumar singh

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फिर चहकी है बुलबुल

फिर चहकी है बुलबुल

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फिर चहकी है बुलबुल मेरी

बिसम्य की अमराई में

इस मरघट से उस मरघट तक हम

सदियों से भटक रहे थे

मन की संसद में संशय के

अनगिन सपने चहक रहे थे।

हाथों में ले फूल चले तो

जाने कैसे आग बने थे

दीप जलाये जो आंगन में

जाने कैसे धुआँ भरे थे।

शाश्वत हंसी हंसे थे जब जब

कितनों को तो बान चुभे थे

प्रेम पगे सब शब्द सलोने

नफरत के परवान चढ़े थे,

एकाकीपन था समाधि सा

सक्रियता की भीड़ लगा था

बिसम्य खुद बिसमित हो

उलझन के इस मकड़जाल में

उलझे उलझे सोच रहे थे

सोच रहे थे इस उलझन को कहाँ जलायें,

कहाँ मिटाएं

सोच रहे थे सोच रहे थे।


फिर चहकी है बुलबुल

मेरी बिसम्य की अमराई में।

एक तराना जैसे जग का

सार हमारे ही अंदर है,

एक तराना जैसे खोया राम

हमारे ही अंदर है,

चकचौन्ध सी हुयी दिये में

झिलमिल झिलमिल आस जगी है,

फिर प्रकाश की चकचौन्ध से

अंधेरे में आग लगी है,

तन ठहरा है मन ठहरा है

ठहर गयी हैं उलझी गलियां।

हंसी फूटी फुलझड़ियों जैसी

नफरत में से राख झरी है,

धुंआ उठा है राग द्वेष से

प्यार की फिर से फसल उगी है

स्पंदित युग की रश्में सब,

नवयुग की कुछ झलक मिली है

फिर चहकी है बुलबुल

मेरी बिसम्य की अमराई में।


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