नूर
नूर

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एक नज़ाकत ने इबादत बदल दी हमारी
न जाने कबसे सजदे मयखानों पर पड़ने लगे
आईने में केवल हमारा अक्स कम था क्या
जो अब नज़रों में भी,
उनके चिराग-ए-शिरकत जलने लगे
ख्वाबों की दुनिया का भी दस्तूर अजब है
ये ख़्वाब होकर भी,
असलियत को ख़्वाब कर देते हैं
कर देते हैं ख़्वाब असलियत को
कि हर तमन्ना को पूरा सरे आम कर देते हैं
झूम उठता है दिल,
दिल की हर ख़्वाहिश हासिल कर
कह उठता है तब,
जमाना भी यह रह-रह कर
ख़ुदा से की थी दगा
देखो कैसे निखरती जवानी में
अक्ल पर पत्थर पड़ने लगे
एक नज़ाकत ने इबादत बदली थी हमारी
और तब से सजदे मयखानों पर पड़ने लगे