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Praveen Gola

Abstract

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Praveen Gola

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नाराजगी कैसी हमसे ?

नाराजगी कैसी हमसे ?

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नाराजगी कैसी हमसे बोलो ना जरा ?

हम दिल्लगी के भी अब हक़दार ना रहे,

तुम अपनी मर्जी से हमे खोजते रहे,

हम अपनी मर्जी से थोड़ा हँस भी ना सके।


इतनी बेरुखी क्यूँ दिखा रहे हो सनम ?

तुम्हारी बेरुखी हमारी जान ले लेगी,

हम ना चाहते हुए भी जो गुनाह कर बैठे,

वही गुनाह हमे तुम्हारी एक याद दे देगी।


तुमने ही बनाया था एक रिश्ता दोस्ती का,

हमने उसी हक़ से थोड़ी मस्ती की ज़नाब,

गर रूठ जाया करोगे तुम इस तरह बार - बार,

तो सोचो ना ये दिल कितना होगा तार - तार ?


मैने कब कहा कि तुम हो नौकर मेरे ?

मैं खुद किसी नौकरानी से कम नहीं साहब,

गर होती मालिक बनने की चाहत मुझे कभी,

तो इस तरह तन्हाई में ना लिखती यूँ किताब।


ज़ख्मों पर मरहम भरते-भरते एक उम्र गुजर गई,

जो बाकी है अभी वो दूसरों को मनाने में कट गई,

मेरी हस्ती मिटा कर गर खुशी तुम्हे मिलती हो ज़नाब,

तो शौक से जाईये बिन पिलाये मुझे कोई शराब।


बस नाराजगी से हमे परहेज आज भी है सनम,

हम मर भी जायें तब भी वो प्यार ना होगा कम,

हम अब ना फिर करेंगे कोई मस्ती तुम्हारे साथ,

तुम चाहे छोड़ देना बीच भँवर में मेरा हाथ।


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