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Ramanpreet -

Others

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मन की रौशनी

मन की रौशनी

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सारी उम्र गंवा दी मैंने 

चिरगों को रोशन करने में

बस भूल गया अपने भीतर 

एक लौ को रोशन करने को


होती वो रोशन अंतर्मन में 

तो नहीं भटकता संस्कारों से

रिश्तों की डोर थामे मैं 

रहता महकती फुलवारियों में

और ना होता आज तन्हा मैं हजारों में


सारी उम्र गंवा दी मैंने

चिरगों को रोशन करने में

बस भूल गया अपने भीतर 

एक लौ को रोशन करने को


 जो वो होती रोशन मुझमें 

 तो होता मैं उच्च विचरों में

 ना भटकता द्वेष के अंधकारों में

 रहता सदा प्रसन्नचित्त होकर मैं

 जीवन के सभी उजियारों में


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