मजबूर
मजबूर
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हमेशा मजबूर रहा
मजबूरी में उतर कर नहीं देखा
इस मुसाफ़िर ने ऐसा समन्दर
नहीं देखा
सदीयाँ बीत गई मैंने दिन
में घर नहीं देखा
रोज़ चिल्लाते हैं यहाँ पे लोग
पर ऐसा निर्दयी पत्थर नहीं देखा
हर चीज ढूंढ कर भी नहीं मिलती
ऐसा काँटों का बिस्तर मैंने नहीं देखा
हँसी मज़ाक और उपदेश बहुतों
ने किये
पर मज़दूर को किसी ने छू कर
नहीं देखा
हालत कितने भी बुरे हो पर
सवाल ना उठाने वाले
गर्दन से कटा हुआ सर नहीं देखा