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Kavita Sharrma

Others

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Kavita Sharrma

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महफ़िल

महफ़िल

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जिंदगी दौड़ रही है रेल की तरह

मुसाफ़िर हैं हम सब ही तो यहां

अपनी-अपनी मंज़िल को पाना है

ख़ामोश रातें जो वीरान सी हैं

उन्हें फिर से रोशन बनाना है

दिन-रात जो दौड़ रहे हो पैसे के लिए

इक पल ज़रा ठहरो कभी अपने भी लिए

ये खामोशी तोड़ो थोड़ा सामाजिक बनो

ख़ामोश रातों को फिर से महफ़िल सा करो


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