महफ़िल
महफ़िल
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जिंदगी दौड़ रही है रेल की तरह
मुसाफ़िर हैं हम सब ही तो यहां
अपनी-अपनी मंज़िल को पाना है
ख़ामोश रातें जो वीरान सी हैं
उन्हें फिर से रोशन बनाना है
दिन-रात जो दौड़ रहे हो पैसे के लिए
इक पल ज़रा ठहरो कभी अपने भी लिए
ये खामोशी तोड़ो थोड़ा सामाजिक बनो
ख़ामोश रातों को फिर से महफ़िल सा करो।
