मेरा घर
मेरा घर
न जाने कितने साल बीत गए
इस शहर की भीड़ भाड़ में,
पक्की सड़कें, ऊंची इमारते,
दौड़ती भागती यातयात में।
खो गयी सब मस्तियां
जो की थी अपने गाँव मे,
वो पगडंडी वो खेत खलिहान
वो कुएं का पानी।
लालटेन और ढिबरी की रोशनी में,
कि थे पढ़ाई भी कभी घर के रोशनदान में।
यादों की धुंधली परत हट रही,
जैसे जैसे मेरे कदम पड़ रहे गाँव मे।
गुड्डे गड्डियों की खेल,
भाई बहन का लड़ाई झगड़ा,
दादी नानी की कहानी,
एक था राजा एक थी रानी।
रात को छत से तारे गिनना
और माँ के साथ गुनगुनाना,
चँदा मामा दूर के पूए पकाये गुड़ के।
गर्मी की दोपहर और
चुपके से गाँव की सैर,
सखियों के संग खेलना कूदना।
पकड़े जाने पर पापा की डाँट फटकार,
फिर भी कम नही होते दादी का प्यार दुलार।
आज जब रखे कदम कई साल बाद गाँव मे,
अनायास ही दिल खिल उठा,
मन नाचने लगा।
जब फिर से गयी लांघ
चौखट घर के आंगन में।
बचपन लौट आया
फिर से खेत खलिहान में।
वो तालाब और वो आम का पेड़
जहाँ ढेले से लगाए थे निशान कभी।
एक एक मस्तियां तैरने लगी आँखों में सभी।
फिर से जी आयी मैं अपना बचपन
मेरा गांव मेरा घर मे।।