STORYMIRROR

Surendra kumar singh

Others

3  

Surendra kumar singh

Others

लौट ही रही हूँ

लौट ही रही हूँ

1 min
204

बह रही थी मैं अनवरत

और सुन रही थी

समुन्दर की पुकार।

बसा रही थी

अपने किनारे किनारे

जीवन की बस्तियां।

उगा रही थी हरियाली

लग रहा था

स्वर्ग उतर आया है

मेरे किनारे।


लोग आये

परिंदे आये

परमात्मा आये

सबने बनाया अपना

अपना आशियाना

मेरे किनारे किनारे।

मैं बह रही थी अनवरत

सुन रही थी

समुन्दर की पुकार

महसूस कर रही थी

उसकी बेचैनी,

व्याकुलता और उदासी

भाववेशित हो उठी

और जा मिली समुन्दर से।

समुन्दर भी मुझे पाकर

भूल गया खुद को


उसकी चंचलता

उसकी लहरों की उथल पुथल

शांत झील में तब्दील हो गयी

मैं बहुत खुश होती हूँ

उसके शांत और निर्मल जल में

अपना चेहरा देखकर।

लेकिन

अब मुझे याद आ रहे है

मेरे अपने किनारे

जो आज भी सुंदर हैं

खुश हैं आनन्दित हैं

वो सब कुछ है वहाँ

जो मैं वहां छोड़ आयी थी


बस उनमें जीवंतता नहीं है

सब कुछ एक तस्वीर सा लगता है

मेरे किनारे की आस्था

विश्वास जीवन की उमंग

एक ठहरी हुयी तस्वीर से हो गये है

एक स्थिर और स्थापित तस्वीर।

किससे कहूँ अपना दर्द

मैं समुन्दर तो नहीं जो बदल जाऊं

और खुशी बांटने की जगह

दर्द बांटने लगूँ।

बहती रही हूँ हटाते हुये

रास्ते की सारी बाधाएँ

बहाती रही हूँ अवरोध

अब मैं अपनी कथा क्या सुनाऊं

अपना निर्णय सुनाती हूँ

लौट रही हूँ

यहॉं समुन्दर से निकल कर

अपने किनारे

अपनी बसायी हुयी बस्तियों में

जीवंतता के लिये।



Rate this content
Log in