क्यों उजाड़ता हैं दलित परिंदे के घोंसले को,,,
क्यों उजाड़ता हैं दलित परिंदे के घोंसले को,,,
बोल मड़के
तेरा क्या मज़हब है
पानी में भी कोई
तेरा क्या गर मज़हब है
आज भी तेरा आदम जमाने से
क्या कोई उसूल हैं
दलित नहीं पी सकेगा पानी
ये क्या कोई कसूर हैं
जातिवाद के पलड़े में
क्या तू तोल रहा है
इंसान हैं इंसान ही रहने दे
क्या इनके भेष को बदला रहा है
ये जात पात की कुरितिया हैं
सब मनुज मन की ये बेड़ियां है
तू भी नश्वर है मैं भी नश्वर हूं
फिर क्यूं ये दूरियां हैं
क्यों पूछता हैं उनका मज़हब
क्यों पूछता है उनकी जाती क्या है
सब एक मांस के लोथड़े है
हर कोई एक दिन माटी है
उजड़ते रोज़-दर-रोज़
कितने दलीत परिंदों के घोंसले हैं
ठाकुर, बामन और पठानों के
क्या ये रोज़-दर-रोज़ के चोंचले हैं।
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अब सुन मडके
बड़ी मुश्किल से मिली है ये आज़ादी
इसे जातियों में ना बांटो
हर धर्म के लोग हुए हैं शहीद
इसे धर्म के दंगों में ना बांटो
बाहर के दुश्मनों से सीमापर
लड़ते हैं हमारे सैनिक
तू दो घूंट पानी के लिए दुश्मन ना पाल
बोल मड़के
मिटा पायेगा ये आदम ज़माने की
जात पात की इस लड़ी को
यां रोज़-हर-रोज़ उजाड़ेंगा दलित परिंदे के घोंसले को।