कविता- " कोरोना काल"कोरोना
कविता- " कोरोना काल"कोरोना
कोरोना दिखा रहा इक्कसवीं सदी का
सबको समय विकराल।
संक्रमितों की संख्या बढ़ रही दिनोंदिन
क्या इंदौर, दिल्ली क्या भोपाल।
नवतपे की गर्मी से हो रहा सारा जनजीवन बेहाल।
अप्रैल में हमने जलाए दीपक,
मार्च में मिलाई थी तालियों से ताल।
फिर हुआ " अम्फान" का आगमन,
प्रतीत हुआ आया प्रलय काल।
सुरक्षित इंतज़ामों से हुआ वो विफल
और स्थितियाँ हुई पुनः बहाल।
प्रवासी मजदूरों का पलायन,
जैसे आया हो कोई भूचाल ।
इसी बीच टिड्डियों ने आकर
किसानों को किया बदहाल।
पहले बीमारी, बेरोज़गारी भुखमरी
और भूकंप के झटके,
अब कहीं न पड़ जाए अकाल।
मास्क, ग्लव्स, सैनिटाइजर ही हैं
अब आगे जीवन की ढाल।
डॉक्टर्स, नर्सेस, पुलिस, सफाईकर्मी सबने
अपना जीवन रखा जोखिम में डाल।
पर पूरी निष्ठा लगन से लग कर लिया
जीवन रक्षा का कार्य संभाल।
घर की महिलाएं कहीं दिखा रहीं पाक कला,
नृत्य कला, तो कोई चित्र कला का कमाल।
होली का गया कोई छूटा मायके में,
तो कोई न जा पाया ससुराल।
अजीब सी हैं ये छुट्टियाँ, बच्चे तरसे नानी घर जाने को,
बच्चों को तरसे ननिहाल।
न होंगे बाराती, न बरात की धूम,
न होगा डी जे पार्टी और धमाल।
बरतनी होगी भारी सुरक्षा, करना होगा
हर समय सुरक्षित दूरी का ख्याल।
आने वाली पीढ़ी सुनेंगी कहानियाँ
और करेंगी "कोविड-19 " से जुड़े सवाल।
ये तो वर्णित है साल 2020 का हाल।
उम्मीदों से हैं फिर भी हम भरे हुए,
सूक्ष्म वायरस को हरा फिर होंगे हम खुशहाल।
आत्मनिर्भर बनने में प्रयासरत
हम बना के रहेंगे भारत को विश्व में बेमिसाल।