कटघरे के भीतर
कटघरे के भीतर
कटघरे के भीतर
ख़ून से रँगी सड़कों पर
अपने कदमों के निशान बनाते हुऐ
निकल पड़े हैं
हज़ारों लाखों बच्चे
पूरी दुनिया के घरों से।
बच्चों के हाथों में हैं मशालें
चेहरे हैं आँसुओं से तर-ब-तर
मन में समाया है एक खौफ़
कानों में गूँज रही है धमाकों की आवाज़ें
और आँखों में चस्पा हैं तमाम सवाल
जिनका जवाब देना है
हमें, आपको, इस पूरी व्यवस्था को।
इन बच्चों की लाल पड़ गई सूनी आँखें
जानना चाहती हैं
अपने पैदा होने का कसूर
कि क्यों वे सभी बना दिये गऐ अनाथ
चंद मिनटों में
कुछ उन्मादियों द्वारा किऐ गऐ धमाकों
और दहशतगर्दी के खेल से
कि क्या होगा अब उनका भविष्य
कि कैसे मिटेगा उनके चेहरों पर छाया हुआ खौफ़
कि कैसे वे उबर सकेंगे पूरे जीवन भर
रात में दिखने वाले भयावह सपनों के प्रहार से
कि कौन बुलाऐगा अब उन्हें बेटा कहकर
कि किसके आँचल में छुप सकेंगे वे
उनींदी आँखों से भयावह काली आकृतियाँ देखकर
कि कैसे बिता सकेंगे वे भी
एक सामन्य बच्चे का जीवन।
ये सभी सवाल पूछ रहे हैं
ये सारे बच्चे
हम सभी से
सोचिये ज़रा--सोचिये
कुछ थोड़ा बहुत तो बोलिये
क्या जवाब है हमारे आपके पास
इनके सवालों का।
हम सब खड़े होकर कटघरों में
गीता पर हाथ रख कर
सच बोलने की शपथ तो खा सकते हैं
परन्तु
क्या दे सकते हैं इन बच्चों को
कोई सबूत/कोई प्रमाण/कोई आश्वासन
इन बच्चों के
बचपन को सुरक्षित रखने का?
आप भी जरा विचारिये
डालिये अपने दिमाग पर कुछ ज़ोर
कि क्या जवाब देना है इन बच्चों को
कब तक चलता रहेगा
दहशतगर्दी का यह खेल
कब तक बारूद के धमाकों
और संगीन के साये में
खौफ़नाक मंजर की तस्वीरों से
आतंकित होते रहेंगे
ये बच्चे?
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डा0हेमन्त कुमार