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Vivek Madhukar

Others

4.5  

Vivek Madhukar

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कन्हैया तेरी वंशी

कन्हैया तेरी वंशी

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उस भोर

बैठा था मैं छत पर कि

कोई उतर आया

रवि की किरणों पर चलकर

और दी उसने बिखेर अपने प्यार

की आभा मेरे तन-मन पर .


स्वर्गिक सुख का अनुभव करा रहा

था साहचर्य उसका हर दिन, हर पल

प्रतीत हो रहा था ऐसा मानो अस्त

न होगा सुख मेरे सूर्य का

कुदृष्टि डाले भले ही संसार हमपर .


किन्तु,हा दैव !

यह कैसी विडम्बना है

सच अवश्य हुई मेरी चाह, पर

वह अभूतपूर्व आनंद कहाँ है ?

सूर्य तेजपूर्ण है, पर

प्रेम का वह प्रकाश कहाँ है ?

यह तुम्हारी कैसी लीला है प्रभो !


चला गया वह जिसने खिलाए

थे प्रेम-पुष्प मेरे मन के अरण्य में

और छोड़ गया पीछे झुलसाती हुई

प्रचंड मध्यान्ह सूर्य की किरणें .


दहक रहा है अंतर मेरा

ह्रदय की बाधित हो रही है गति

निराशा के सागर में हूँ खड़ा

उतरूँ कैसे पार, कुंद हो गयी है मति .


धू-धू कर जल जायेगा मेरा

यह क्षत-विक्षत मन

रह जायेगा खड़ा बिजूका-सदृश

क्या मेरा यह नश्वर तन


लुप्त हो जायेगा अस्तित्व मेरा

क्या ढूंढते-ढूंढते प्यार इस संसार से

देखते रहोगे क्या तुम यूँ ही

निर्निमेष, निर्विकार - से ?


निराशा के इस घोर अन्धकार में

मुझे जीवित रखी है आशा की

एक क्षीण लौ ने

कभी तो बजेगी तुम्हारी वंशी

कभी तो गूँजेगा दिग-दिगंत में


उसका सुमधुर स्वर

कभी तो उतरेगा कोई जो शान्त

करने को मेरे ह्रदय की ज्वाला

बिखेरेगा किरणें

चाँदनी – सी शीतल!


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