कन्हैया तेरी वंशी
कन्हैया तेरी वंशी


उस भोर
बैठा था मैं छत पर कि
कोई उतर आया
रवि की किरणों पर चलकर
और दी उसने बिखेर अपने प्यार
की आभा मेरे तन-मन पर .
स्वर्गिक सुख का अनुभव करा रहा
था साहचर्य उसका हर दिन, हर पल
प्रतीत हो रहा था ऐसा मानो अस्त
न होगा सुख मेरे सूर्य का
कुदृष्टि डाले भले ही संसार हमपर .
किन्तु,हा दैव !
यह कैसी विडम्बना है
सच अवश्य हुई मेरी चाह, पर
वह अभूतपूर्व आनंद कहाँ है ?
सूर्य तेजपूर्ण है, पर
प्रेम का वह प्रकाश कहाँ है ?
यह तुम्हारी कैसी लीला है प्रभो !
चला गया वह जिसने खिलाए
थे प्रेम-पुष्प मेरे मन के अरण्य में
और छोड़ गया पीछे झुलसाती हुई
प्रचंड मध्यान्ह सूर्य की किरणें .
दहक रहा है अंतर मेरा
ह्रदय की बाधित हो रही है गति
निराशा के सागर में हूँ खड़ा
उतरूँ कैसे पार, कुंद हो गयी है मति .
धू-धू कर जल जायेगा मेरा
यह क्षत-विक्षत मन
रह जायेगा खड़ा बिजूका-सदृश
क्या मेरा यह नश्वर तन
लुप्त हो जायेगा अस्तित्व मेरा
क्या ढूंढते-ढूंढते प्यार इस संसार से
देखते रहोगे क्या तुम यूँ ही
निर्निमेष, निर्विकार - से ?
निराशा के इस घोर अन्धकार में
मुझे जीवित रखी है आशा की
एक क्षीण लौ ने
कभी तो बजेगी तुम्हारी वंशी
कभी तो गूँजेगा दिग-दिगंत में
उसका सुमधुर स्वर
कभी तो उतरेगा कोई जो शान्त
करने को मेरे ह्रदय की ज्वाला
बिखेरेगा किरणें
चाँदनी – सी शीतल!