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Goldi Mishra

Others

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Goldi Mishra

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कलाई

कलाई

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नाज़ुक कलाइयों पर कांच की चूड़ियां,

किसी के मन को भा गई लाख की चूड़ियां,

कहीं खनक प्रीत मिलन की,

कहीं हथेली में बंद हैं चीख चूड़ियों की,


टुकड़ों में बिखरी वो चूड़ी स्मृतियों का अंग है,

पहला मिलन उसमें आज भी समाहित है,

सावन, बसंत हर ऋतु में कलाई खनक उठी एक राग सी,

हर साज श्रृंगार से दूर एक कलाई अरसे से गूंगी थी,


कलाई में ये बन एक रीत सजी थी,

रिवाज़ थे कांच के उसपर कच्ची रंगाई थी,

गली में शोर था पसरा बस मनिहार के फेरे से,

कलाई खिल उठी सतरंगी चूड़ियों से,


आंगन में नृत्य रचा ऐसा चूड़ी का तार तार हुआ था हर टुकड़ा,

अंतिम जब थाप हुई मौन तब आंगन था,

पैरों तले वो चूड़ी रौंदी गई,

खनक उन चूड़ियों की अनन्त काल को चुप हो गई,


दियासलाई तले अधूरे खत को पूर्ण किया,

सिहायी में डूबो कर चुप्पी को अल्फाज़ कर कर दिया,

खत में टूटी चूड़ी का ज़िक्र भी किया,

सूनी इन कलाई को कैसे सजाऊं इन गलियों में एक अरसे से मनिहार का फेरा ना हुआ।



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