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निशान्त मिश्र

Others

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निशान्त मिश्र

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"कीचड़ और पद्म"

"कीचड़ और पद्म"

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कीचड़ को कीचड़ ही भाता

फिर वो पद्म कहां से लाता

किन्तु पद्म की ऐसी धृति है

कुंठित कीचड़ में उग आता।


कुंठित कीचड़ निज कुंठा में

सड़ता जाता, कुढ़ता जाता

और पद्म अपनी ही लय में

बढ़ता जाता, चढ़ता जाता।


वर्षा ऋतु में कुंठित कीचड़

हर्षित हो नाला बन जाता

और नलिन के सुंदर पट पर

अपना मलिन कीच फैलाता।


किंतु पद्म संकल्पित विभु सम

पंक उदित पंकज बन जाता

मेघपुष्प  का  करता स्वागत

देवपुष्प  तब  ही  कहलाता।


अन्य पुष्प भी उग सकते हैं

कीचड़ की विषयुक्त वायु में

किंतु पूज्य पंकज का धीरज

कीचड़ में शतदल की रचना।


एक पद्म कीचड़ में उगता

एक हिमालय की घाटी में

कीचड़ में उद्भव पंकज का

उसकी धृति की कथा बताता।


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