खट्टी मीठी यादों का कारवाँ
खट्टी मीठी यादों का कारवाँ


खट्टी मीठी यादों का कारवाँ बनता
चला गया
कभी कोई आया तो कभी कोई
चला गया
वक्त का खेला देखो वो भी यूँ ही
वक्त बेवक्त छलता चला गया
ग़लती क्या थी मेरी ये तू बता दे
ऐ वक्त जो तेरी रज़ा न मंज़ूर की हो
जो तू मुझसे यूँ ही भिड़ता चला गया
माना शौक है मुझ को तुझ से यारी
निभाने का
पर क्यों भला तू मेरे ज़ख्मों पर
नमक मलता चला गया
शिकवा तुझ से भी क्या करूं ऐ वक्त
हर बार गिर कर सम्हलता चला गया
फिर भी संवेदनाओं के भाव में मैं
ग़लती पर ग़लती करता चला गया
जब बोझ लगने लगा ये सब तो
सब कुछ जाानकर भी मैं
अंजान बनता चला गया...