"खत"
"खत"
आज कहाॅं कोई है खत लिखता
कहाॅं किसी के मनोभावों को पढ़ता
डाकखानें कोई नहीं जाता
कोई डाकिया खत नहीं लाता
कभी खतों का था जमाना
सबकी ही निगाह रहती
घर की चौखट पर
कब होगा डाक बाबू का आना
हम खत सहेज कर रखते थे
जैसे कोई हो प्यारा अपना
बार-बार खतों को पढ़ना
और इत्मीनान से लिखना
अब वो सुकून इत्मीनान कहाॅं
यह सब हो गया सपना
पहले हर किसी की जिंदगी का
खत होते थे बड़ा हिस्सा
ये तो एक हकीक़त थीं
ना कहानी ना किस्सा
कभी ये खत मुस्कान थे लाते
और कभी ऑंखें नम कर जाते
हर किसी को बेहद सुहाते
दिल को तो तसल्ली दे जाते
आज जहॉं भी नजर हैं दौड़ाते
सबको मोबाइल पर हैं पाते
यहीं थिरकती ऊॅंगलियाँ सबकी
कौन समझें किसी के मन की
आज के समय की बात करूँ तो
एक छोटा सा एसएमएस
खतों को गया निगल
समय ही कुछ ऐसा चला
सबकुछ गया बदल
खत कोई एक शब्द नहीं
एक एहसासों का दरिया था
तभी तो अपने जज्बातों को
सबने बखूबी खत में पिरोया था
फुर्सत मिले तो उन खतों को
पुनः निकाल कर पढ़ना
खत में पिरोये शब्दों का
पढ़कर मान रखना
