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निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

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निशान्त "स्नेहाकांक्षी"

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खोया हुआ स्वरूप दिला दे !

खोया हुआ स्वरूप दिला दे !

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मैं अविरल अनवरत नदी

पर्वत से बही मानों अश्रु की धारा,

निकली निर्झर लेकर चट्टानों का सहारा।


मैं कल कल करती नदी प्रखर से,

बह चल निकली कैलाश शिखर से।

बर्फीली चोटी की गलियां,

देवदार वृक्षों की कड़ियाँ।


मैं स्वच्छ कोमल स्वच्छंद सी,

द्वेष रहित पवित्र गुलकंद सी।

जब चोटी से नीचे बहती हूँ,

प्रकृति के रंग में ढलती हूँ।


नीचे उर्वर मैदानों को,

हरियाली से भरती हूं।

जब तक रही इंसानों से अछूती ,

मैं गंगा, सरस्वती देवियों को छूती !


पर नदी भी तो है एक जनानी

इन्सानी स्वार्थ से भला कहाँ बच पानी।

प्रकृति के रंगों से वाकिफ थी,

पर इंसानी रंगों से कहाँ मुखातिब थी।


पल पल रंग बदलती इस दुनिया ने,

मटमैला मुझको कर डाला।

अपने पापों के बोझ तले,

मुझको बदसूरत कर डाला।


मैं नीरस, मलिन हुई,

कलयुग में नदी कुलीन हुई।

अब तो मुझको उद्धार मिले,

मेरा स्वच्छ स्वरूप उपहार मिले।


मानव से बस इतनी विनती,

नदी भी है तेरी एक जननी।

उसको उसका स्वरूप दिला दे,

खोया निर्मल प्रतिरूप दिला दे।


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