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Surendra kumar singh

Others

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Surendra kumar singh

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कहो कबीर

कहो कबीर

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कहो कबीर, कहाँ फिर आये

जग असार के मेले में।

राम दुल्हनियां

अंधेरे में घूंघट काढ़े


इस मंदिर से उस मंदिर तक

इस मस्जिद से उस मस्जिद तक

शबद शबद का कीर्तन करती

आंखों में माया को भरती

घूंघट में कुछ राज छिपाये

मन भावन संसार बसाये

राम तमाशा देख रही है।

थोड़ा रुककर, थोड़ा रोकर


कपड़ों के रंगों में फंसकर


शब्दों में आकाश उठाये

जीवन पथ पर चलती रहती

साज और आवाज न भाई

देख नियति का खेल डराई

भौंचक्की भौंचक्की जैसी

दिल पर पत्थर रखी जैसी।

बंजारिन सी भटक रही है

कहो कबीर कहाँ फिर आये

जग असार के मेले में।

देख तेरे उस अचरज वाले

हवा महल की ज्योति निराली

साधुन संगत बैठ बैठकर

माया की संगति में पड़कर


कैसा रूप बनाये बैठी

खास खास जगहों में पैठी

इस युग की बीमारी लगती

सुबह शाम को गपशप करती

अंधेरे के दीपकुंड में

अंधेरे की बाती डाले

अंधेरे का तेल भराये

अंधेरे की ज्योति जलाती

माया की काया में उलझी

जीवन शून्य बनाये बैठी

राम भरोसे ही है ऐंठी

आंधी आयी शांत खड़ी है


शोर हुआ तो शांत पड़ी है


देख देख सूरज की किरणें

चादर ताने मौन पड़ी है


कहो कबीर कहाँ फिर आये

जग असार के मेले में।

माया महाठगिन के अंदर

अंदर अंदर पैठ जमाकर

सार तत्व को पा लेने की

पाकर उसमे रम जाने की

दृष्टि तुम्हारी

जग माया की जुगति जलाकर

उसकी सारी खाक लगाकर

जीवन प्रभु की अलख जगाकर

ज्योति निराली हाथ उठायी

शब्दों के सुमिरन तक आयी

आंखे बंद किये जग घूमे

धाम धाम अंधेरा चूमे

विष की बेलि में जन्नत सूझे

तेरी कहानी बिरलै बुझे

अंधेरे को धाम बताये

सुबह को सारी रात सताये

कहो कबीर कहाँ फिर आये

जग असार के मेले में।

मन मुर्गे ने बांग लगायी

रजवाड़े में छिड़ी लड़ाई


मन्दिर मन्दिर शव विखरे हैं

मस्जिद में अजान की बलि है

जर्रे जर्रे खून भरे हैं

सीमाओं पर मन के पहरे

पूजा में सेना के नखरे

अज्ञानी की ज्ञान न भाये

राम दरश की हठ भरि लाये

तुम्ही बताओ जीवन प्रभु के परे

कहीं, कोई राम कहाँ है

तुम्ही बताओ धुँआ भरे

इस जगत राज में सार कहाँ है

तुम्ही बताओ सदियों से जलती ज्योति को

पल भर का विश्राम कहाँ है

कहो कबीर कहाँ फिर आये

जग असार के मेले में।

देख तेरे उन दो पाटों के

जिनमे पिसते पिसते कुछ न बचा था

पाटों पर भी पाट चढ़े हैं


पिसने के सामान नये है

पाटों में भी आग लगी है

बख्त ने ऐसी चाल चली है

सूरज की अंधी किरणों से

कैसी कैसी हवा चली है

आंखे बंद किये मत बैठो

खोलो अपनी नजर पुरानी

कहो कबीर कुछ नयी कहानी

राम कहानी बड़ी पुरानी


जो है उसका अंत बताओ

जो था उसमें मत भरमाओ

नये सिरे से नयी हवा में

अपने प्रेम का राग बजाओ

सीमा पर मन के पहरे में

आग लगावो

भेदों को बंदी बनवाओ

कहो कबीर कहाँ फिर आये।


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