खामोशियाँ
खामोशियाँ
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खामोशियाँ,
अब अच्छी लगने लगी मुझे,
कम से कम शोर तो नहीं मचाती,
अपने पन का,
ढोंग तो नहीं करती,
बस रहती है सदा,
मेरे आस पास,
निहारती, संवारती मुझे,
मेरी कविताओं को,
नित नए आयाम देती,
शब्दों को गहराई देती,
जो अक्सर छू जाते है
मेरे मन की काल कोठरियों में
उन यादों को,
जो कभी जीने का एक ज़रिया होता था,
मेरे लिए,
अब बस आंखों में तैरते ख़्वाब की तरह,
आते जाते हैं
और मायूस कर जाते है
जब मैं खामोश होता हूं।
